कवि प्रदीप भारतीय सिने- संसार में नवजागरण के प्रतिनिधि स्वर हैं। उनके गीतों में भारत की सांस्कृतिक आत्मा का तेजस्वी स्वर है आजादी की लड़ाई के परिदृश्य, राष्ट्रीय आंदोलन की पुकारें, लाठियों -संगीनों से मुठभेड़ और निर्भय नेतृत्व की क्रांतिकारी कसमों के वे साक्षी रहे ।पराधीनता काल में आजादी का स्वप्न और जन-जन की आकांक्षा उनके गीतों का मुखर स्वर बना रहा। प्रदीप जी हमारे बीच नहीं हैं,पर आज भी उनके गीत राष्ट्रीय त्योहारों के मुखड़े बने हुए हैं- ऐ मेरे वतन के लोगों...... दे दी हमें आजादी बिना खड़ग बिना ढाल।
कवि रामचंद्र द्विवेदी प्रदीप का जन्म 6 फरवरी 1915 को बड़नगर (जिला उज्जैन' मध्यप्रदेश) में हुआ। गांव गाराखेड़ी के देशज वातावरण में भजनों में उगा उनका स्वर बाद में आजादी के संघर्ष की पहचान बन गया ।अत्यंत साधारण परिस्थितियों में उनका हौसला इतना अनथक था कि बाद के गीतों में यह जिंदादिल रवानगी गाती रही-" चल चल रे नौजवान, दूर तेरा गांव।" शिक्षा के लिए वे इलाहाबाद गए तो वहां के परिवेश में ऐसी जगह बनी कि महाप्राण निराला ने माधुरी में एक आलेख में लिखा -" प्रदीप जी की आर्थिक अवस्था इतनी अच्छी नहीं है, जितनी ह्रदय की अवस्था है। प्रदीप जी का स्वर ईश्वर प्रदत्त है। उन्होंने स्वर की शिक्षा नहीं पाई, पर इतना अच्छा स्वर मैंने हिंदी में दूसरा नहीं सुना।" बॉम्बे टॉकीज के प्रोडक्शन मैनेजर एन. आर. आचार्य उन्हें हिमांशुराय के पास ले गए। दो सौ रपए मासिक का ऑफर स्वीकार कर प्रदीप जी ने' कंगन' फिल्म के लिए गीत लिखा -"हवा तुम धीरे धीरे बहो, मेरे आते होंगे चितचोर।" और इस प्रसिद्ध के गीत यात्रा के साथ उन्हें केंद्रीय संगीत- नाटक अकादमी का पुरस्कार मिला। प्रशस्ति में कहा गया -"उनके गीत बड़े और युवा सभी के द्वारा गाए जाते हैं। भारतीय सिनेमा जगत में राष्ट्रीय नवजागरण लाने का श्रेय गीतकार प्रदीप को है और उनके गीत सदैव याद किए जाएंगे।"
प्रदीप जी के गीतों भारतीय जीवन दर्शन ,परिवर्तन की क्रांतदर्शिता, सामाजिक जीवन का यथार्थ, जन-संकल्प, राष्ट्रीय चेतना ,मानवीय पीड़ा और भविष्य की दृष्टि मुखरित है। उनमें जन-जन की व्यथा और देश प्रेम का अकूत प्रवाह है। जागृति फिल्म के इस गीत से हिलोर सी उठती है -"इस मिट्टी से तिलक करो यह धरती है बलिदान की।" यों वे आगाह करते हैं-" संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से।" मगर प्रेरित भी करते हैं-" दूर हटो ऐ दुनिया वालो ,हिंदुस्तान हमारा है।"
आजादी के समय विभाजन की त्रासदी ने उनके सपनों को आहत किया। 'नास्तिक 'फिल्म में राम और रहीम के भक्तों को आड़े हाथों लेते हुए वे सीख देते हैं- भारत के नौजवानों चलो एक राह पर, हिंदू मुसलमानों चलो एक राह पर।" उस काल की त्रासदी के बीच उनका अकुलाया स्वर आर्त तो हुआ ,पर वे हमेशा राष्ट्रीय सांस्कृतिक जागरण के लिए प्रतिबद्ध रहे।
प्रदीप जी की अनेक फिल्में हैं- बंधन, किस्मत ,नया संसार, मशाल, काफिला, जागृति ,अमर रहे प्यार ,आंचल, अग्नि देखा आदि । पर 'संतोषी माता 'के गीत तो भक्ति संगीत का पर्याय बन गये। इनमें वाद्ययंत्रों का प्रयोग उतना मुखर नहीं था, जितनी भक्तों की करुण पुकार ।सरलतम शब्दों में अभिव्यक्ति के पक्षपाती प्रदीप जी के गीत जनसाधारण की जबान पर कायम हैं।
प्रदीप जी के गीतों में नारी- जागृति का स्वर भी सतेज है-" मत रो, मत रो ,आज राधिके !सुन ले बात हमारी। संकट में जो घबरा जाए, नहीं हिंद की नारी ।"फिर परहित सरिस धर्म नहिं भाई का भारतीय दर्शन अपने चरम प्रतिमान में इस तरह गाता है-" दूसरों का दुखड़ा दूर करने वाले, तेरे दुख दूर करेंगे राम। किए जा जग में भलाई के काम, तेरे दुख दूर करेंगे राम ।"यही सच्चा कर्म सिद्धांत है। अहंकार की चेतना से प्रदीप जी कोसों दूर हैं।उनके गीतों में देश बोलता है ।हिमालय और गंगा पहचान बनते हैं ।हिमालय राष्ट्र का प्रहरी है ,तो गंगा देश की पहचान -"सच पूछो तो इस देश की पहचान है गंगा ।"
प्रदीप के गीतों में दर्शन तो हर कहीं पसरा पड़ा है उनके गीतों में -"आज लुटा दे रे सरबस अपना मान ले कहना मेरा। मिट जाएगा पल में तेरा जनम जनम का फेरा रे।" उनमें भारतीय दर्शन और प्रज्ञा का अनुभूतिमय स्वर है -"मुखड़ा देख ले प्राणी जरा दर्पण में ,देख ले कितना पुण्य औ कितना पाप तेरे जीवन में ।"फिर पराधीनता की बेड़ियों में उनका दर्द कितना गहरा है-" पिंजरे के पंछी रे तेरा दरद न जाने कोय।बाहर से खामोश रहे तू भीतर भीतर रोए ,कह न सके तू अपनी कहानी ,तेरी भी पंछी क्या जिंदगानी रे।" प्रदीप जी ने गुलामी और आजादी के समय को देखा है ।सारे परिवर्तनों को परखा है। वे प्रतिकार भी करते हैं ,पर नियति दर्शन के विवशता को गाये बगैर नहीं रहते ।जीवन की निरंतरता में सुख-दुख आंख मिचौली करते रहते हैं। कहीं कुछ बंधा नहीं है -"सुख- दुख दोनों रहते जिसमें ,जीवन है वो गांव ,कभी धूप तो कभी छांव" ।पर वे जीवन की व्यथा कथाओं में कभी पौरुष को ललकारते हैं, तो कभी नियति- चक्र को नमन करते हैं-" कोई लाख करे चतुराई रे ,करम का लेख मिटे ना रे भाई रे "।दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित प्रदीप जी के अमर गीत भारतीय जनजीवन में सदैव तरंगायित होते रहेंगे।
प्रो. बी. एल. आच्छा
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार है)
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