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गुरु ही पूर्ण माँ है -पदमचंद गांधी


गुरु आर्य संस्कृति का प्राण है, जिस आर्य संस्कृति में हम रहते हैं, जिसका ताना-बाना हम बुनते हैं वह गुरु तत्व ही है। भारतीय संस्कृति विश्व की एक महान संस्कृति है। जिसने विश्व को प्रकाश स्तंभ के रूप में प्रेरणा दी है तथा उसका पथ प्रदर्शित किया है। भारतीय संस्कृति के अनुसार जीवन की शुरुआत गुरु से होती है, क्योंकि गुरु ही है जो ज्ञान को, ध्यान को, चिंतन एवं विचारों को, देश के परिवेश को, भक्ति एवं मुक्ति के पथ को तथा संसार सागर से पार उतारने हेतु जानने की, परखने की तथा आत्मसात करने की शक्ति एवं प्रेरणा देता है। स्कंद पुराण के गीता भाग में स्पष्ट किया है कि गुरु ही महिमा का प्रदाता, महिमा का संदेशवाहक, चेतना का सारथी, संस्कारों का संवाहक, प्रेम का प्रतिनिधि तथा नीति का निर्देशक होता है।

संसार में अभागा वह नहीं है जिसके पास माया नहीं, दौलत नहीं, वैभव नहीं है, अभागा तो वह है जिसके पास गुरु नहीं, गुरु का साया नहीं, उसकी छाया नहीं है। ज्योतिष के अनुसार कुंडली में भी केंद्र में गुरु की दशा देखी जाती है। यदि गुरु की दशा पावरफुल होती है तो कुंडली श्रेष्ठ मानी जाती है। अतः स्पष्ट है गुरु शक्ति का स्रोत है, भक्ति का आधार है, तथा मुक्ति का मंत्र मंत्र दाता है। इसलिए सद्गुरु को ईश्वर का दिया हुआ वरदान भी माना गया है।

गुरु ही पूर्ण माँ होते हैं जो शिष्य की ममता,  समता एवं आध्यात्मिकता की शीतलता का अमृत पान कराते हैं। गुरु करुणा के सागर एवं ममता की मूरत होते हैं। चाणक्य नीति के अध्याय 15 श्लोक 2 में कौटिल्य ने कहा -गुरु शिष्य को सफलता की सुधा पिलाते हैं, गुरु शिष्य को कीर्ति कलश थमाते हैं, गुरु शिष्य को प्रसिद्ध की पताका फहराते हैं, गुरु शिष्य को अमरत्व की राह दिखाते हैं तथा मुक्ति की महिमा से साक्षात्कार करते हैं। गुरु ही शिष्य को पूर्णता का ज्ञान करते हैंl इसलिए गुरु को पूर्ण माँ का दर्जा दिया गया है। आधुनिक समय में माँ की ममता पर भी प्रश्न चिन्ह लग रहे हैं वह अपनी ममता का गला घोट सकती है, नवजात शिशु को झाड़ियों में फेंक सकती है, शिशु गृह एवं पालना गृह में छोड़ सकती है, उसकी ममता भरा आंचल ममता विहीन होकर तार- तार भी हो सकता है लेकिन गुरु का गुरुत्व उसकी ममता ऐसा नहीं कर सकती।

वेदों में कहा है भगवान की दृष्टि में सब कुछ पूर्ण है उसे अनुभव करने की आवश्यकता है। परमात्मा पूर्ण है, गुरु परमात्मा का प्रतिनिधि होने के कारण पूर्ण है। शिष्य जब गुरु की पूर्णता को प्राप्त करता है और जब उसे पूर्णता प्राप्त हो जाती है तो वह संसार भी उसे पूर्ण दिखाई देने लगता है। जो कमी ,जो रिक्तता दिखाई देती है वह मात्र हमारी भ्रांति है।

सद्गुरु मिलना दुर्लभ है। वह आज भी मौजूद है लेकिन हमारे भीतर उन्हें पहचानने की दृष्टि, क्षमता एवं पात्रता नहीं है। हमारी विडंबना है कि हम उन्हें नहीं पहचान पाते, गुरु यदि हमें पहचान भी ले तो हमें विश्वास नहीं है, वह बुद्धि हमारे भीतर में नहीं है। जैसे हजारों बछड़े में गाय अपने बछड़े को पहचान लेती है तथा बछड़ा भी अपनी गाय माता को पहचान लेता है वह ज्ञान भी हमारे भीतर में नहीं है। क्योंकि हमारे भीतर किंतु, परंतु, तो, शायद ,कितने ही भ्रांति युक्त प्रश्न उत्पन्न हो जाते हैं, शंकाएं उत्पन्न हो जाती है। श्रद्धा, समर्पण एवं आस्था का भाव नहीं रहता, बच्चा जब छोटा होता है जो माँ कहती है हर बात मान लेता है। कोई तर्क, वितर्क, प्रश्न नहीं करता है। पूर्ण समर्पण भाव से आज्ञा का पालन कर लेता है। माँ कठोर होकर दंड भी देती है तो बालक सहज रूप से स्वीकार कर लेता है तथा कोमलता से पुरस्कार भी देती है तो भी प्रसन्नता से ग्रहण कर लेता है। क्योंकि उसके लिए माँ ही पूर्ण तथा श्रेष्ठ होती है। ऐसी भावना उसकी रहती है। ऐसी ही सरलता, समरसता, कोमल दृष्टि, आत्मबोध, वह आँखें, वह समझ यदि हमें भी प्राप्त हो तो गुरु के सच्चे स्वरूप को पहचान सकते हैं,उसे समझ सकते हैं।

गुरु को जानना, पहचाना एवं परखना बहुत कठिन होता है। इसके लिए गुरु को जानने की वेदना हो, पीड़ा हो, प्रश्न हो, आकुलता हो, जिज्ञासा हो, जैसे नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद) के मन में रामकृष्ण परमहंस को जानने एवं समझने की थी। क्योंकि उनकी वेदना ही जीवन की जिज्ञासा बनी जिससे गुरु को पहचान। ऐसी स्थिति गुरु को जानने के लिए व्यक्ति में कुतूहल, प्रश्न और जिज्ञासा उत्पन्न करती है। कुतूहल रोमांचित करते हुए प्रश्न उठता है और वह प्रश्न ही जिज्ञासा बनाकर उत्पन्न होता है। यही जिज्ञासा हमारे अस्तित्व को भिगो देती है, हमारे अस्तित्व में व्याप्त हो जाती है। उसे शांत करने के लिए व्यक्ति व अlकुल और व्याकुल हो जाता है।

इस प्रकार जब जीवन में जिज्ञासा होती है, वेदना होती है तो उस पीड़ा को हरण के लिए, जिज्ञासा के समाधान के लिए गुरु मिलते हैं और गुरु जब जान लेते हैं कि हम सुयोग्य हो गए हैं सतपात्र हो गए हैं तभी वह मिलते हैं, अन्यथा हम गुरु के पास रहकर भी गुरु को नहीं जान पाते। हर दिल में गुरु हो सकता है लेकिन बिरले तो वह होते हैं जो गुरु के दिल में होते हैं। गुरु पूर्णिमा तो हर वर्ष आती है लेकिन गुरु का बोध तो जीवन में एक बार होता है जिसको प्राप्त करके शिष्य पूर्ण समर्पित होकर कृत्य कृत्य हो जाता है। यह भाव ही पूर्णता का भाव है जिससे शिष्य अपनी पहचान बनाता है।

हमारा जीवन देह तक सीमित नहीं है या हम जितना जानते हैं उतना ही नहीं है। उसकी विशालता का अनुभव गुरु ही करता है। गुरु हमें जीवन विद्या सीखाते हैं, जीवन को समझना एवं जीना सिखाते हैं, जीवन के सिद्धांतों से, जीवन के स्वरूप से, जीवन के तत्वों से, तथा जीवन के आधार से हमारा परिचय करते हैं। यह सच है बुद्धि हमें ज्ञान देती है, समझ देती है फिर भी वह मात्र ज्ञान तक सीमित होती हैै ।लेकिन गुरु हमें अवधि ज्ञान, मन पर्याय ज्ञान तथा केवल ज्ञान तक चलना सीखते हैं जिसकी कोई सीमा नहीं होती वह असीमित होता है। इस प्रकार गुरु का सानिध्य हमें परमात्मा का सानिध्य देता है। इसको पाने के लिए परिष्कार ,पुरुषार्थ , पात्रता , सरलता आदि का होना जरूरी है।

गुरु ही हमें हर समस्या का समाधान देते हैं। समस्या की घड़ी में गुरु ही काम आते हैं। गुरु ही हमारे रक्षक होते हैं, शरण देने वाले होते हैं। नावे चाहे कितनी भी हमारे पास हो लेकिन गुरु रूपी पतवार नहीं हो तो जीवन पlर होने वाला नहीं है। कितनी ही संपत्ति हमारे पास क्यों ना हो यदि गुरु नहीं है तो उस जैसा दरिद्र भी नहीं है। अतः गुरु कृपा लेने की कला भी हमें आनी चाहिए। अतः हमें संकल्प करना है कि मुझे गौतम गणधर जैसा शिष्य बनाकर गुरु चरणों में रहना है। गुरु के दिल में मेरा वास बने ऐसी मेरी भावना हो क्योंकि गुरु ही है जो गुलाब की तरह खिलना सीखाते हैं, चंदन जैसी शीतलता भरते हैं, दीपक की तरह आलोकित करते हैं क्योंकि वे ही पूर्ण माँ स्वरूप है। इस प्रकार गुरु पूर्णिमा हमें सच्चे शिष्यत्व के विकास, पात्रता के अर्जन, समर्पण, विसर्जन और विलय का संदेश देती है।
पदमचंद गांधी,भोपाल

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