हिन्दी साहित्य के इतिहास में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तम्भों में से एक श्री सुमित्रानंदन पंत का जन्म आज़ के उत्तराखंड राज्य के बागेश्वर जिले के कौसानी ग्राम में 20 मई सन् 1900 को हुआ था। उनके जन्म के कुछ ही घंटों बाद उनकी माता की मृत्यु हो गई और उनका लालन-पालन उनकी दादी ने किया। बचपन में उनका नाम गोसाईं दत्त रखा गया था। प्रयाग में उच्च शिक्षा के दौरान 1921 के असहयोग आंदोलन में महात्मा गाँधी के बहिष्कार के आह्वान पर उन्होंने महाविद्यालय की पढ़ाई छोड़ दी और फिर हिंदी, संस्कृत, बांग्ला और अँग्रेज़ी भाषा-साहित्य के स्वाध्याय में लग गए।
वे किशोर आयु से ही कविताएं लिखने लगे थे, लेकिन उनकी काव्य-चेतना का विकास प्रयाग में ही हुआ। उनका रचना काल सन् 1916 से 1977 तक लगभग 60 वर्षों तक का रहा है। उनकी काव्य-यात्रा के तीन चरण देखे जाते हैं। 1916-35 का पहला चरण छायावादी काव्य का है, जिसके दौरान ‘वीणा’, ‘ग्रंथि’, ‘पल्लव’, ‘गुंजन’ तथा ‘ज्योत्स्ना’ संग्रह प्रकाशित हुए। उनकी सर्वप्रथम कृति 'वीणा' है। इसे उन्होंने अपना दूधमुंहा प्रयास और बाल कल्पना कहा है। ‘पल्लव’ छायावादी सर्जनात्मकता का चरम उत्कर्ष है और इस संग्रह को उनकी प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ प्रस्फुटन माना जाता है। मौन निमंत्रण, आंसू, उच्छवास, बादल आदि इस संग्रह की उत्कृष्ट कविताएं हैं। 'आंसू' की बालिका असाधारण ही है, देखिए -
तुम्हारे छूने में था प्राण, संग में पावन गंगा स्नान।
तुम्हारी वाणी में कल्याणी, त्रिवेणी की लहरों का गान।।
दूसरा चरण प्रगतिवादी काव्य का है जब मार्क्स और फ़्रायड के प्रभाव में वे सौंदर्य-चेतना से बाहर निकलकर साधारण आदमी की पहचान का प्रयास करते हैं। इस दौर में उनके ‘युगांत’, ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ संग्रह प्रकाशित हुए। तीसरी धारा अध्यात्मवाद की है जब वे अरविंद-दर्शन के प्रभाव में आए। ‘स्वर्ण-धूलि’, 'स्वर्ण किरण', 'उत्तरा', ‘अतिमा’, ‘रजत शिखर’ और ‘लोकायतन’ इस चरण के संग्रह हैं जहाँ वे अध्यात्मवादी भावलोक में विचरण करते हैं।
‘युगांतर’, ‘कला और बूढ़ा चाँद’, ‘सत्यकाम’, ‘मुक्ति यज्ञ’, ‘तारापथ’, ‘मानसी’, ‘शिल्पी’, ‘सौवर्ण’, ‘पतझड़’, ‘अवगुंठित’, ‘मेघनाद वध’ आदि उनके अन्य प्रमुख काव्य-संग्रह हैं। ‘चिदंबरा’ संग्रह का प्रकाशन 1958 में हुआ जिसमें 1937 से 1950 तक की रचनाओं का संचयन है। कविताओं के अतिरिक्त उन्होंने नाटक, उपन्यास, निबंध और अनुवाद में भी योगदान किया है। परन्तु उनकी कीर्ति का आधार उनके काव्य संग्रह ही हैं।
पन्त जी की 'ग्रंथि' विप्रलंभ शृंगार का एक गीति काव्य है। मनोरम कल्पना, अलंकृत भाषा और अनुभूति की सघनता ने इसमें कवित्व की मोहिनी भर दी है। एक उदाहरण प्रस्तुत है-
इन्दु पर उस इन्दु मुख पर साथ ही
थे पड़े मेरे नयन जो उदय से
रक्तिम हुए थे पूर्व को
पूर्व था पर वह द्वितीय अपूर्व था।।
उनकी एक प्रसिद्ध कविता 'पर्वत प्रदेश में पावस' की छटा दर्शनीय है-
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्त्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,
-जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण सा फैला है विशाल!
पन्त जी के 'लोकायतन' को महाकाव्य की संज्ञा मिली है। 680 पृष्ठों का यह विशालकाय ग्रंथ दो खण्डों में विभक्त है। इसके प्रथम भाग का नाम- बाह्य परिवेश' और द्वितीय का 'अन्तश्चैतन्य' है। यह पन्त जी की काव्य साधना का प्रतिनिधि ग्रंथ है। इसमें पल्लव के सौन्दर्य चित्र, युगवाणी का बौद्धिक विलास और परवर्ती अध्यात्म चेतना एक साथ विकसित हुई है।
उन्हें सन् 1960 में 'कला और बूढ़ा चाँद' काव्य-संग्रह के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से और सन् 1968 में ‘चिदंबरा’ काव्य-संग्रह के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मभूषण' से अलंकृत किया और उन पर डाक टिकट भी जारी किया गया। कौसानी गाँव के उनके घर को 'सुमित्रा नंदन पंत साहित्यिक वीथिका' नामक संग्रहालय में परिणत किया गया है, जहाँ उनकी व्यक्तिगत चीज़ों यथा प्रशस्ति पत्र, विभिन्न संग्रहों की पांडुलिपियों को सुरक्षित रखा गया है। संग्रहालय में उनकी स्मृति में प्रत्येक वर्ष ‘पंत व्याख्यान माला’ का आयोजन भी किया जाता है।
सरिता सुराणा, हैदराबाद
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