अलावों के दिन (नवगीत) -अशोक आनन
पहाड़ों से उतरकर -
ज़मीं पर आई ठंड ।
सन्दूक से निकलकर -
बाहर आए स्वेटर ।
मौजे , टोपे , मफ़लर -
कांपे कम्बल थर-थर ।
आतंक अब ज़मीं पर -
खूब मचा रही ठंड ।
लौटकर आ गए फ़िर -
गर्म अलावों के दिन ।
गुचा रही बर्फ़ीली -
हवाएं भी आलपिन ।
अरविंद को कोहरा -
बिंद बता रही ठंड ।
बर्फ़ की शाल ओढ़े -
बेहोश पड़ीं नदियां ।
भी़ग गईं शबनम से -
दूब की हरी फरिया ।
हवा में ख़ूब लहरा -
उसे सुखा रही ठंड ।
झोपड़ियां भी सोईं -
बर्फ़ की रुई ओढ़ें ।
पेड़ भी अब सोए -
बेचकर अपने घोड़े ।
फुटपाथ को आसमां -
तले सुला रही ठंड ।
अशोक आनन, मक्सी
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