गांधीजी के तीन बंदर थे, जिनकी यह खासियत थी कि वे अपने अपने निर्धारित काम करते थे। एक का काम था बुरा नहीं देखना। दूसरे का काम था बुरा नहीं सुनना और तीसरे बंदर, का काम था बुरा नहीं बोलना। इस स्थिति को वे अपनी अपनी मुख मुद्रा से प्रदर्शित भी करते थे। एक बंदर ने अपनी आंखों पर हाथ रख लिए थे ताकि वह बुरा काम नहीं देख सके। दूसरे बंदर ने अपने कानों पर हाथ रखे हुए थे ताकि उसे कोई बुरी बात न सुननी पड़े। इसी प्रकार तीसरे बंदर ने अपने मुंह को अपने दोनों हाथों से बंद कर रखा था ताकि उसे बुरा न बोलना पड़े।
ये तीनों बंदर गांधीजी के आदर्श के प्रतीक थे। लेकिन कालांतर में जब गांधीजी नहीं रहे तो वे तीनों बंदर अपने आदर्श को पेड़ की डाली पर टांग कर अपने काम धंधे की तलाश में निकल पड़े। जिस बंदर ने बुरा न देखने का आदर्श बनाया था संयोग से उसे एक ऐसे कारखाने में काम मिला जहां हर काम बुरा होता था। मिलावट, बेईमानी, झूठ, अन्याय, चोरी, अत्याचार आदि। शुरू शुरू में बंदर को बड़ा बुरा लगा परंतु वह लाचार था। अपना पेट भी तो उसे भरना था। इसलिए अपनी आदर्श छवि को छोड़ छाड़ कर वह यह सब बुराई देखते हुए अपना काम करने लगा।
दूसरे बंदर ने बुरा न सुनने का आदर्श बनाया था, संयोग या दुर्योग से उसे एक ऐसे आफिस में काम मिला, जहां बुरा ही बुरा बोला जाता था। गंदी गंदी बातें, गालियां, अश्लील वाक्य तथा हर किसी पर भद्दी भद्दी कमेंट की जाती थी। बेचारा यह बंदर परेशान हो गया, परंतु जीना था इसलिए वह यह सब सुनने के लिए विवश हो गया। साथ रहने से इसका प्रभाव तो उस पर पड़ना ही था। इसका उस पर प्रभाव पड़ा और ऐसा पड़ा कि वह गंदे से गंदा और बुरे से बुरा सुनने का आदी हो गया।
अब तीसरे बंदर की बात पर आते हैं। इस बंदर को बुरा न बोलने की ट्रेनिंग दी गयी थी। परंतु जब गांधीजी ही नहीं रहे तब वह भी उन दो बंदरों की तरह अपने लिए कामकाज को ढूढने निकल पड़ा। इस बंदर को एक नेताजी के यहां काम मिल गया। काम था बुरा बुरा बोलना। जो काम नेताजी अपने विपक्षी लोगों को गाली देकर या अपने अधीन लोगों को छोटा और निम्न स्तर का समझ कर उन्हें बुरा बुरा बोलते थे। अब उनकी ज़गह इस बंदर को करना पड़ता। मन मार कर वह अपने नेताजी के विपक्ष के लोगों और उनके शत्रुओं को बुरा भला कहता। थोड़े दिनों में उसने बुरा बुरा बोलने में महारत हासिल कर ली।
ऊपर स्वर्ग में बैठे गांधीजी ने अपने तीनों बंदरों को ग़ल़त़ काम करते देखा तो उन्होंने अपना सिर पीट लिया। वे बहुत दुखी हुए उन्हें अपने तीनों बंदरों पर बहुत क्रोध आ रहा था। वे चाह कर भी उन बंदरों का कुछ कर सकते थे, क्योंकि वे ऊपर स्वर्ग में थे और ये बंदर पृथ्वी लोक पर। वे तीनों बंदरों को किसी भी प्रकार का न तो दंड दे सकते थे और न उन्हें समझाईश ही दे सकते थे। वे बस, झुंझला कर रह गये। इधर तीनों बंदर अपने नये काम और प्रोफेशन से बहुत खुश थे।
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