मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुई नेहरू खानदान की एकमात्र उत्तराधिकारी इंदिरा प्रियदर्शिनी अगर आज जिंदा होती और कांग्रेस सत्ता में होती तो उन्हे कमोबेश वैसे ही याद किया जाता जैसे अटल या दीनदयाल उपाध्याय याद किये जाते हैं आज । यदि पलट कर भारत के इतिहास पर नजर डालें तथा स्वाधीन भारत को एक मजबूत राष्ट्र के रूप में खड़ा करने वाली लौह महिला के अवदान का मूल्यांकन किया जाए तो इंदिरा गांधी भारत रत्न समेत हर सम्मान की हकदार हैं ।
यह वही इंदिरा थी जिसे कामराज जैसे ताकतवर नेताओं ने इसलिए प्रधानमंत्री बनने दिया था ताकि उनका राजनैतिक इस्तेमाल अपने हित साधने के लिए किया जा सकें , जिसे मोरारजी जैसे नेताओं ने कभी मोम की गुड़िया कहकर उसका मजाक उड़ाया था। मोम की गुड़िया सी दिखती इंदिरा, जिसे नेहरु परिवार ने फूलों की पंखुड़ियों की तरह संभाल कर पाला था , वही इंदिरा जो 1966 में केवल इसलिए देश की प्रधानमंत्री बन गई कि वह नेहरू की बेटी थी। जिसने 1969 में कांग्रेस का विभाजन करके नई कांग्रेस बना ली थी और समय के साथ जिसने पुरानी कांग्रेस को दफन कर दिया, 1971 में उसने पाकिस्तान को ऐसा घेरा कि बंगलादेश ही नहीं बनाया वरन् पाक के मन में एक भय भर दिया और 1965 के उसके हमले का मुंह तोड़ जवाब भी दिया ।
लौह महिला की उपाधि पाने वाली जबरदस्त नेता इंदिरा ने 1980 में देश को डरा रहे आतंकियों को धता बताकर ऑप्रेशन ब्ल्यूस्टार से न केवल स्वर्ण मंदिर को आजाद कराया अपितु दहशतगर्दी की कमर तोड़ फिर से देश को विकास की राह पर डाल उसे अपने पैरों पर खडे करने का रास्ता बनाया और अंततः सांप्रदायिक नफरत और हिंसा का शिकार होकर 1984 में अपने ही अंगरक्षकों की गोली का शिकार बनी. आज उसी इंदिरा की जयंती है ।
आज बेशक उस इंदिरा को याद करना तो बनता है , बिना यह सोचे कि वह किस दल की थी या आज किस दल की सरकार सत्ता में है. यही इस देश की संस्कृति भी है पर संस्कारों एवं संस्कृति की बात करने वाली सरकार अपनी पूर्व कांग्रेसी सरकारों के द्वारा किए गए व्यवहार को आधार बनाकर इंदिरा को एक हाशिए पर रख रही है बिना यह सोचे कि वह इस देश की पहली महिला प्रधानमंत्री थी और अब तक की आखिरी भी।
प्रियदर्शनी व लौह महिला दोनों विशेषण फिट बैठते हैं इंदिरा पर जिसे विपक्ष तक ने कभी ‘दुर्गा’ माना था। आनंद भवन में जन्मी, पली बढ़ी जवाहरलाल व कमला नेहरु की इकलौती पुत्री इंदिरा ने कालांतर में भारतीय राजनीति व विश्व राजनीति के क्षितिज पर अमिट प्रभाव छोड़ा ।
छात्रा के रूप में सिल्क पहनने वाली इंदिरा को शांति निकेतन में खादी की साड़ी पहननी पड़ती थी और नंगे पैर रहना होता था। शांति निकेतन का अनुशासन भी काफी कड़ा था। सामान्यतः अमीरी में पले बच्चों के लिए वहाँ टिक पाना कठिन था लेकिन इंदिरा ने सख्त अनुशासन तथा अन्य नियमों का पूर्णतया पालन किया इंदिरा में अध्ययन से इतर लोककला और भारतीय संस्कृति में भी रुचि जाग्रत की गई।
इंदिरा जानती थी कि किसी भी राष्ट्र के लिए उसकी आजादी का कितना अधिक महत्त्व होता है। इंदिरा ने आजीवन भारत की आजादी के महत्व को पहचाना तथा अलग-अलग कोनों से उस पर उठने वाली कुटिल निगाहों एवं नीतियों को धता बताया ।
इंदिरा पर अक्सर कठोर महिला होने का आरोप लगाया जाता है पर इंदिरा के व्यक्तित्व में आई कठोरता प्रतिकूल परिस्थितियों का परिणाम थी , अन्यथा तो उनके अंदर भी एक कोमल दिल था । उसी के चलते 1942 में इंदिरा को प्रेम हुआ। नेहरू भले ही एक धर्मनिरपेक्ष एवं उदारवादी छवि के नेता थे लेकिन एक पिता के रूप में वह सोच भी नहीं सकते थे कि इंदिरा उस फिरोज गाँधी से शादी करना चाहती है जो उनके समाज-बिरादरी का नहीं है। उन्होंने कई प्रकार से इंदिरा को समझाने का प्रयास किया लेकिन इंदिरा की जिद कायम रही। अस्तु इंदिरा की जिद के आगे नेहरू हार गए और फिरोज तथा इंदिरा का विवाह कहा तो कुछ ने दुर्गा व लौह महिला भी बताया ।
इंदिरा का पूरा जीवन उतार चढ़ाव भरा था। जिद्दी, दृढव्रती, साहसी, निरंकुश राजनेता, कूटनीतिज्ञ, प्रशासक, रणनीतिकार, जाबांज, देशभक्त, सदय, कठोर, ममतामयी, हार न मानने वाली, मोम की गुड़िया से लौह महिला में तब्दील हो जाने वाली इंदिरा है ही ऐसी शख्सियत जिसे न दोस्त भुला सकते हैं और न दुश्मन ।
शास्त्री जी की मृत्यु के बाद 1966 में अप्रत्याशित रूप से प्रधानमंत्री बनी । इंदिरा एक कठोर शासक एवं देश के प्रति पूर्णतया समर्पित नेता, विरोधियों के लिए निर्मम, समर्थकों के लिए पूर्णतया पक्षपाती,किसी भी हद तक जाकर अपने लक्ष्य हासिल करने को कटिबद्ध, राजनीति में सारे उतार-चढ़ावों से उबरने में सिद्धहस्त इंदिरा ने सत्ता भोगी भी और सत्ता से निर्वासन भी सहा । उसी संसद में उन्हें फटकार भी सहनी पड़ी जिसकी कभी वह नेता होती थी । वह चुनाव हारी भी और जीती भी, गिरी भी और उठी भी मगर अपने ही विश्वस्त अंगरक्षकों की गोलियों से लहूलुहान इंदिरा का मृत शरीर शक्ति स्थल पहुंचकर फिर कभी नहीं उठा ।
आनंद भवन से शुरू हुआ इंदिरा का सफर भौतिक रूप से शक्ति स्थल की चिता पर समाप्त हो गया लेकिन उनकी नीतियां, पाकिस्तान को सिखाए गए सबक, बांग्लादेश का निर्माण, आपातकाल लागू करना, 1977 में हारकर 1980 में वापसी करना इतिहास में दर्ज हो चुका है ।
-डॉ घनश्याम बादल
0 टिप्पणियाँ