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पति परमेश्वर (व्यंग्य) -राजेन्द्र परदेसी


सुबह होते ही चिड़ियों की सुरीली चहक के साथ श्रीमतीजी की कर्कश आवाज सुनायी पड़ती है- ‘अजी सुनते हो?’ मैं कुछ उत्तर दूँ कि इसके पहले ही वह अपना आदेश भी उसी कड़कदार आवाज में सुना देती है- ‘जाकर दूध ले आओ, नहीं तो वह पानी मिला देगा।’

दूधवाला भी जाने किस मिट्टी का बना है, जो आज तक मैं यह रहस्य जान नहीं सका कि वह दूध में पानी मिलाता है या पानी में दूध।

वह कुछ भी करता हो मुझे तो चाय में ही मिला हुआ मिलता है। अगर सुबह न उठूँ तो समझिये चाय भी न मिले, साथ ही दिन भर के लिए घर की शांति के भंग हो जाने की अंदेशा भी रहता है। इसी कारण श्रीमतीजी की एक आवाज पर ही झट बिस्तर छोड़कर दूध लाने चल देता हूँ। लौटने पर मुंह-हाथ धोकर फ्रेश होता हूँ कि बिना मांगे ही चाय हाजिर हो जाती है।

शायद आपको मेरे भाग्य पर ईर्ष्या हो रही होगी और मन-ही-मन अपने को कोसने भी लगे होंगे कि हमें भी ऐसा सौभाग्य क्यों नहीं मिला कि बिना मांगे ही चाय मिल जाये। दुःखी मत होइये जनाब ! यह औपचारिकता श्रीमतीजी मात्र इसलिये करती है कि वह दिन भर का कार्यक्रम मुझे सुना जायें। वैसे बीच-बीच में श्रीमतीजी पूछने के लिए पूछ लेती है कि आज कौन-सी सब्जी बननी है? बच्चे के लिए कौन-सा कपड़ा लाना है? कौन-से रिश्तेदार को किस अवसर पर क्या देना है और तो और किस मित्र से संबंध मुझे रखना है? परन्तु सर्वसामान्य निर्णय तो श्रीमतीजी ही करती है। मैं तो केवल मौन होकर सुन लेता हूँ। मजबूरी भी है क्योंकि न तो उन्होंने कभी हमें अपनी ओर से इसके लिए मौका दिया और न ही मैं कभी इतना साहस ही बटोर सका कि उनकी बातों का जबाव दे सकूं। आखिर घर में उन्हीं का ही तो एकछत्र राज्य है। इसीलिये अन्य आदेशों की तरह जब यह भी आदेश देती है कि आप आफिस जा ही रहे हो तो पप्पू को भी लेते जाइये, उसे स्कूल में छोड़ दीजियेगा। मैं चुप-चाप पप्पू को भी साथ लेकर चल देता हूँ।

वैसे सच बात तो यह है कि मैंने अब तक कार्यालय में न तो अपने अधिकारी, और न ही घर में श्रीमतीजी के आदेश के विरूद्ध कभी कुछ कहा है। साहबजादे को साइकिल पर पीछे बैठा कर चल देता हूँ लेकिन साहबजादे भी अपनी माताश्री के कदमों पर चलने वाले है। स्कूल जाते समय रास्ते में जो भी शंका होती है, उसके बारे में इन्क्वारी शुरू कर देते हैं और मैं भी यही सोचकर कि जिस तरह जार्ज स्टीफेंसन ने चुल्हे के सामने बैठ-बैठकर स्टीम इंजन का आविष्कार कर लिया था, उसी तरह मेरे साहबजादे भी साइकिल पर चक्कर लगाते-लगाते शायद न्यूटन के गति के नियम को कहीं से परिमार्जित कर दें और अगले वर्ष का नोबेल-पुरस्कार मेरे घर आ टपके। अपनी बुद्धि के अनुसार उनके प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करता हूँ लेकिन जब उसका स्कूल दीख जाता है तो वह दो कदम पहले ही ट्राफिक पुलिस की तरह स्पीड में ही साइकिल रूकवा देते हैं और ‘टा ! टा’ कर विदा हो जाते हैं।

विज्ञान के इस युग में राष्ट्रनेता के आवाह्न पर अपने जीवन की गाड़ी इसी तरह खींच कर इक्कीसवीं सदी में चलाने का प्रयास कर रहा था कि एक दिन अचानक मेरे अन्दर सोचने की शक्ति आ गयी। मैं सोच भी सकता हूँ, इसका आभास मुझे उसी दिन हुआ जब साहबजादे की सवारी के साथ घर वापस लौटा। दरवाजे से ही पड़ोस की शीला चाची और मेरी गृहलक्ष्मी के बीच पति की महिमा सुनायी पड़ी। शीला चाची की आवाज थी- ‘बिटिया, पति तो परमेश्वर होता है।’

पति परमेश्वर का नाम सुनते ही मेरे कान गधे के कानों की तरह खड़े हो गये। आखिर पति को परमेश्वर ही क्यों कहा गया, जब कि जानवरों में जो सम्मान गधों को दिया गया है, वही इंसानों में पति को। परमेश्वर की उपमा से संबोधित सुनकर चिन्तित हो गया हूँ। मुझे तो इसमें पत्नियों द्वारा पतिवर्ग के विरूद्ध गंभीर साजिश की गंध आ रही है। काफी मनन के बाद मेरी मंदबुद्धि में यही आया है कि पति को परमेश्वर इसलिये कहा जाता है कि उसे सचेत कर दिया जाय कि वह परमेश्वर की भाँति भक्त की गाथा सुना करे, पर कुछ बोल न सके। वह भी अपनी श्रीमतीजी के आदेशों को बस सुना करे, उत्तर न दें।

वैसे मेरे अर्थ से आपका अर्थ मेल खाये तो मुझे अवश्य सूचित करें, जिससे पति परमेश्वर महाकाव्य न सही, कम से कम खंड काव्य ही लिख सकूँ जिससे आगे होने वाले पतियों को मार्गदर्शन मिल सके।

-राजेन्द्र परदेसी, लखनऊ

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