असम का जातीय उत्सव बिहु एक सार्वजनीक उत्सव हैं। ऐसा कहा जा सकता हैं कि बिहु के माध्यम से ही असमिया जाति का लगभग सभी कुछ बड़ा ही सुंदर रूप से सम्पन्न होने लगता हैं। असमिया लोक संस्कृति का अनुपम अवदान बिहु के माध्यम से ही प्रकट होता है। असमिया जातिय जीवन का आहार-विहार, गीत-बोली, खान-पान, जलपान, नृत्य-गीत, वाद्य-वादन, आचार- व्यवहार आदि बड़े ही सुंदर रूप से प्रकाशित होने लगता हैं। तभी तो कहते है - बिहु असमीया की पैतृक संपत्ति है। असम के लोग साल में तीन बिहु मनाते है। बोहाग बिहु यानिकी रोंगाली बिहु, काती (कार्तिक) बिहु या कंगाली बिहु और माघ बिहु अर्थात भोगाली बिहु। भिन्न ऋतुओं में इन तीनों बिहुओं को विभिन्न कार्यक्रम और रीति-नीतियों के साथ मनाये जाने के कारण बिहु को ऋतुओं का उत्सव भी कहा जाता हैं।
असमिया नया साल का प्रारंभ होने के साथ साथ ही चैत्र मास की संक्रांति के दिन ही बोहाग बिहु मनाया जाता हैं। नये साल की शुरुआत के साथ ही प्रकृति भी एक नया रूप रूप धारण कर लेती हैं। और ठीक उसी समय बसंत ऋतु का आगमन होने के कारण वृक्ष और पत्ते भी नये रूप धारण करने लग जाते हैं। भिन्न रंगों के फूलों से प्रकृति भी खिल उठती है, कोयल, पपीहे के पंचम स्वरों से मनुष्य का मन मतवाला हो जाता हैं। इन हालात में न तो घर में मन लगता है और न ही बाहर में। कास फूलों की रुई की तरह उड़ने लगता है मन। ऐसे ही एक मनमोहक माहौल में असम के लोग सात दिनों तक बोहाग बिहु या रोंगाली बिहु मनाते हैं।
बोहाग बिहु के पहला दिन ही गाय- बैलों को नहला धुला कर उनके गले में नई रस्सिया डाली जाती हैं और लौकी, बैंगन आदि सब्जियां खिलायी जाती हैं। फिर शाम के समय धूपबत्ती धुना देकर घरों में बना मीठा जलपान वगैरह खिला पीलाकर साल भर के लिए खेत करने को तैयार किया जाता हैं। महिलाएं खुद अपने हाथों से बनाया हुआ बिहुआन (गमोचा) बुजुर्गों को सम्मान के तौर पर और प्रियजनों को उपहार के रूप में देेती है तथा छोटे बड़ों से आशीर्वाद लेते हैं। बिहु की सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि बिहु उत्सव, बिहु गीत और बिहु नृत्य से मुखरित हो उठता है। इस उत्सव में असम के विभिन्न आंचलों में विभिन्न कार्यक्रमों के साथ उदघपन किया जाता हैं। वर्तमान समय में खुले मैदान में बिहु कम ही देखने को मिलता हैं। यह अब मंच में आ गया हैं। समय के अग्रगति के साथ हमें परिवर्तन को स्वीकार करना ही पड़ता है।
बिहु नृत्य और बिहु गीत असमिया लोक संस्कृति का एक अनुपम दर्शन हैं। यह कहा जा सकता है कि ढोल, पेँपा, गगना, सुतुलि, टोका आदि लोक वाद्ययंत्र भी जैसे इस उत्सव में जाग उठते हैं। इसी कारण डॉ भूपेन हजारिका जी ने कहा था कि बोहाग (बैसाख) असमिया जाति की "आयुष रेखा" है।
लोक संगीत की अमूल्य सम्पदा बिहू संगीतों के भिन्न गवेषणा और चिंता-चर्चाएं इन गीतों के महत्व में वृद्धि करने लगी है। "हुचोरि" बिहू का एक अन्यतम आकर्षक रूप है।
बोहाग बिहू के बाद ही आश्विन महीने की संक्रांति के दिन काती (कार्तिक) बिहू का उत्सव मनाया जाता है। ये उत्सव बहुत ही संक्षिप्त में मनाया जाता है, क्योंकि इन दिनों में असमिया समाज के जीवन में अभाव दिखाई देने लगता है। घर घर में तुलसी का पौधा लगाया जाता है। इस बात से ये भी साफ नजर आने लगता है कि वृक्षा रोपण जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। शाम के समय तुलसी के तले दीपक जलाकर प्रसाद चढ़ाकर बच्चे बड़े सभी प्रार्थना करते हैं, और तुलसी मैया से आशीर्वाद लेते है। साथ ही साथ खेत खलिहानों में भी दीपक जलाकर माता लक्ष्मी की स्वागत करने की ये एक अन्यतम कार्यक्रम है। कई लोग आकाश दीप जलाकर भी इस बिहु को एक विशेष रूप देते है। क्योंकि इस उत्सव में खान पान की कोई विशेष व्यवस्था नहीं होती है इसीलिए इस बिहु को कंगाली अर्थात कंगाल बिहु कहा जाता है।
पौष संक्रांति के दिन को माघ बिहु या भोगाली बिहु मनाया जाता है। कृषिजीवी असमीया लोग जब खेत से लक्ष्मी को घर ले आते है तब घरों में भिन्न प्रकार के जलपान, चिउड़ा, पीठा, सांदह आदि विभिन्न पकवान का व्यवस्था करके आनंद उत्सव मनाया जाता हैं। इस उत्सव में खान पान को प्रधानता दी जाती है। इसलिए इस बिहु को भोगाली बिहु के रूप से मनाया जाता है।
इस बिहु के अन्य अनुष्ठान अग्नि पूजन के साथ संपन्न किए जाते है। इस पूजा में खाद्य सामग्री का एक अंश भी अग्नि में अर्पण किया जाता है। मेजी, भेला-घर या हेरालि-घर ये सभी इस बिहु का अन्यतम आकर्षण है। गाँव के जवान लड़के साथ मिलकर खेत के खुले मैदान में फूस से बना हुआ घर "भेलाघर" या "मेजि" निर्माण करके बिहु की पहली संध्या रंगरेलियां मानते है और साथ मिलकर भोजन करते है। फिर अगली सुबह उसी घर को अग्निसंस्कार करके अग्नि देवता को अर्पण कर दिया जाता है। वर्तमान समय में मेजी या भेलाघर का संख्या कम होने लगी है। मगर ये परंपरा अभी भी खत्म नहीं हुई है।
ऐसा कहा जा सकता हैं कि बिहु के माध्यम से ही असमीया जाति की एकता और सामाजिक बंधन अब भी दृढ़ है। इन सभी बिहुओं में छोटों का बड़ों को सम्मानित करना और बड़ों का छोटों को आशीर्वाद करने का प्रथा अब भी प्रचलित है। एक दूजे के घर जाकर मान सम्मान जताना और साथ मिलकर खाने पीने का इन नीतियों के माध्यम से ही ये सामाजिक नीव अब भी दृढ़ है। इसी तरह बिहु के माध्यम से ही असमीया जाति का अस्तित्व अति सुंदर और दृढ़तापूर्वक ढंग से संरक्षित है। चाहे जितना भी परिवर्तन क्यों न आये ये आदर्श अटूट रहेगा यही सत्य है।
-नाजु हातीकाकोति बरुआ, असम
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