ठंड (नवगीत)
ठंड आकर -
अब खड़ी द्वार पर ।
देख उसे सिहरने लगे दिन -
थर - थर कांपने लगीं रातें ।
सन्नाटा पसरा अब घरों में -
करे कोई न घर से बातें ।
पसरी है -
राख भी अंगार पर ।
हवाएं पेड़ों को छोड़ चलीं -
पत्तियों को लगें न वे भली ।
पेड़ों ने भी न रोका उन्हें -
डरीं गांव - शहरों की गली ।
रजई में -
छुपी रुई भागकर ।
पानी के ठंडे तेवर हुए ।
धूप बार-बार मन को छुए ।
सुबह से भली दोपहर लगे -
शाम को देखकर उठें रुएं ।
रात आई -
बर्फ़ - शाल डालकर ।
बदन जल गए अब अलाव के ।
भाव ठंडे हुए अब छांव के ।
आसमान पर देख ठंड को -
याद आए फ़िर दिन गांव के ।
फुटपाथ पड़े -
आसमां ओढकर ।
-अशोक 'आनन', मक्सी (शाजापुर)
0 टिप्पणियाँ