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आत्मा से आत्मज्ञान


हम शरीर हैं या आत्मा, यह एक बड़ा प्रश्न लोगों के मन में बना रहता है? साहित्य जगत की बात करते हैं तो हिंदी में आत्मा शब्द स्त्रीलिंग के रूप में प्रयोग होता है तो संस्कृत में यह पुल्लिंग है। शब्दकोशों और सामान्य जीवन में आत्मा और आत्म से जुड़कर कितने ही शब्द भी बने हैं, जैसे- आत्मतत्व, आत्मचिंतन, आत्मसार, आत्मबोध, आत्मज्ञान आदि। आखिर आत्मा है क्या? शास्त्रों में जाते हैं तो इसका उत्तर भी मिल जाता है, लेकिन हम कितना समझ पाते हैं यह बड़ा प्रश्न है।

मुंडकोपनिषद में लिखा है-

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया न बहुना श्रुतेन। 
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्।।

कहने का भाव है कि यह आत्मा न तो प्रवचन से प्राप्त होती है, न स्मरण शक्ति या बुद्धि बल से। यह श्रवण और श्रुत अध्ययन से भी उपलब्ध नहीं होती। जो साधक आत्मा का वरण करता है, उसे ही आत्मा उपलब्ध होती है। सरल शब्दों में कहें तो जो साधक कर्म क्षेत्र में उतरता है, कर्म करता है, उसे ही आत्मज्ञान होता है। विचार करें तो वही आत्मज्ञान को उपलब्ध हो पाते हैं। जो अपने अंदर झांककर अपनी वृत्तियों का अध्ययन करना जानते हैं।

गीता के अध्याय दो के बीसवें श्लोक में भगवान कहते हैं- 

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

अर्थात यह आत्मा किसी काल में ना तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। इसी बात को आगे समझते हुए भगवान कहते हैं-

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः।।

कहने का भाव है कि इस आत्मा को शास्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता।

जब हम आत्मा के साथ आत्मज्ञान की ओर बढ़ते हैं तो आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए जीवन के हर क्षेत्र में आत्मा का ही वरण करना होगा, अर्थात सभी में एक ईश्वर तत्व का वास देखना होगा। शिवत्व प्राप्त करने का यही एकमात्र मार्ग है। गीता अध्याय दस के बीसवें श्लोक में भगवान अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं- 

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। 
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।

मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूं तथा संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूं। सही मायनों में स्वयं को जानना और अपने अंदर झांकना तथा सभी में भगवान को देखना यही आत्मज्ञान है। इसी से आत्मशुद्धि भी होती है। गीता के अध्याय दोके सैंतालीसवेंश्लोक में भगवान कहते हैं-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचना।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।

अर्थात तेरा कर्म करने में ही अधिकार है,उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो। उपर्युक्त चिंतन-अध्ययन से एक बात तो पता चल ही जाती है कि यह जीवन भगवान का दिया है और भगवान को ही समर्पित करना है, सही मायनों में यही आत्मज्ञान है।

-डॉ. नीरज भारद्वाज
(अदिति फीचर)

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