प्रथम मिलन की वह पावन बेला
थी हृदय में सकुचाहट उलझन,
नयनों में परस्पर झलक पाते
मध्य उपस्थित था मंद-मंद पवन।
इकहरी काया का वह यौवन
झलक रही थी अधर पर मुस्कान,
बड़ों बीच बाधा बन रही किंचित
कर रहे इधर-उधर बरबस ध्यान।
पक्षियों के कलरव,जल क्रीड़ा मध्य
बन रहा था आज एक सौपान,
अट्टालिकाओं की पगडंडी पर चलते
हो रहा वर्तमान से भविष्य का भान।
महकते पुष्प और तरु की छाँव में
त्याग अतीत, बुनते स्वप्न-यथार्थ जाल,
बनने को तत्पर एक दूजे जीवन-साथी
आया वह क्षण गूँजे संगीत-स्वर ताल।
हृदय कक्ष में समेटे मातृ स्मृतियों को
जब सिसकते हुए त्यागा माँ का दामन,
नव स्मृति को सहेजने को प्रतीक्षारत,
तुम्हारे प्रथम चरण को आतुर ये आँगन।
न लगा, आई हो तुम दूजे द्वार से
समर्पण का भाव तुमने दिखलाया,
अपनी निश्छल प्रेम की बातों से
तुमने हर मन को अति हरषाया।
अमिट प्रेम की परछाईं हो तुम
उस परछाईं में, रहता हूँ अब मैं,
पल पल तुम्हारी स्मृति के घेरे बीच
किंचित भी विस्मृत न करूं अब मैं।
हृदय कक्ष में समेटे हैं वो प्रेम क्षण
बंधी है तुम्हीं से ये जीवन की डोर,
हर कदम पर यूँ साथ चलना होगा
जीवन में यदि निशा हो या हो भोर।
प्रेम समर्पण भाव की जो तुम मूरत
समरसता रहे, न रहे जीवन में तम,
जीवन संगिनी बन जो प्रेम बरसाया है
बना रहे यूँ प्रेम, बना रहे ये जीवन संगम।
-आशीष कुलश्रेष्ठ, लखनऊ
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