कभी घर घर चुल्हे जलते थे, ख्वाब सुनहरे पलते थे,
दौर पुराना चला गया, जब चुल्हे संग सपने पलते थे।
कुछ बातें माँ की होती थी, संस्कार रोटी संग पोती थी,
रिश्ते नाते सब समझाती, संस्कृति जीवन में बोती थी।
कुछ बातें खटृटी मीठी होती, ऊँच नीच समझाती थी,
कभी साग में हरी मिर्च, मक्का रोटी सबको भाती थी।
मटृठा मक्खन खाने में होता, दाल पतीली में बनती थी,
जीरा हींग छौंक लगाकर, रोटी चावल संग बनती थी।
वह दौर पुराना चूल्हे का, चुल्हे संग भी रिश्ते बनते थे।
बेटी रोटी की बातें होती थी, गैर भी तब अपने लगते थे।
सामुहिक परिवारों में रहते, सांझी सबकी बातें होती थी,
सिमट गये एकल परिवारों में, चूल्हे जब जब बंटते थे।
-अ कीर्ति वर्द्धन, मुजफ्फरनगर
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