अब शर्म और हया छूटी (ग़ज़ल)
जी लिए उम्र भर न जीने की तृष्णा छूटी ,
जिएंगे और इसी सोच में काया छूटी।
जिंदगी भर जो बुने ,ख्वाब अधूरे ही रहे,
धुले न कर्म विगत न हि ये माया छूटी।
बढ़े हैं मर्ज भी ऐसे कि लाइलाज हुए,
सहारा अब है दुआओं का हर दवा छूटी।
भुलाए बैठे हैं हम अपनी सभ्यता के मूल्य,
हमारी आंख से अब शर्म और हया छूटी।
बच के आतंक के साए से आ गए है 'मनज',
दुःख तो ये है कि अपने जन्म की धरा छूटी।
-पुरुषोत्तम सरसोदिया 'मनज',इंदौर मध्यप्रदेश
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