प्राण तुमको! फिर नहीं देखा सुबह से!
तुम नहीं तो
ये हवायें थम गई हैं।
ओस की बूंदें
जहां थीं, जम गई हैं।
देख लो सूरज नहीं सरका सुबह से!
जी रहा हूं
सच यही है,जानता हूं
और सांसें
ले रहा हूं, मानता हूं
किन्तु चंदन-मन नहीं महका सुबह से!
एक सूनापन
उतरता जा रहा है
दर्द तन-मन
में पसरता जा रहा है
रंग आंखों में नहीं उतरा सुबह से!
-डॉ. महेन्द्र अग्रवाल, शिवपुरी (म.प्र.)
0 टिप्पणियाँ