रासायनिक खेती-बाड़ी के अनेक तात्कालिक और दूरगामी दुष्परिणाम होते हैं। यह किसी भी देश के लिए अत्यधिक महंगी सिद्ध होती है। यह किसानों की जिन्दगी और जीविका के लिए अपूरणीय एवं अगणनीय क्षतिकारक है। इससे पर्यावरण का नुकसान, विशेष तौर पर उपजाऊ मिट्टी और धरा का नाश, जनस्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट, जलवायु परिवर्तन, उत्पादकता और रोजगार में कमी, जीवनदायी शुद्ध जल का अपव्यय और प्रदूषण जैसी अनर्थकारी समस्याएँ पैदा हुई हैं। गंगा और अन्य नदियों के जल के प्रदूषण में एक प्रमुख कारण रासायनिक खेती भी है।
रासायनिक खेती नीति से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने के मौलिक अधिकार का खुला उल्लंघन होता है। संविधान के अनुच्छेद 39 (ए) और (बी), 46, 47, 48, 48ए, 51ए (जी) और (एफ) और 243जी (ग्यारहवीं सूची के साथ पठित) में प्रदत्त संवैधानिक अधिकारों का खुला हनन होता है। रासायनिक खेती की नीति अनेक न्यायिक निर्णयों की अवहेलना करती है तथा अनेक महत्वपूर्ण कानूनों (जैसे- लोक विश्वास, टिकाऊ विकास और पीढ़ियों की समता के सिद्धान्त) का भी उल्लंघन करती है। इसने संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य 2016 के संकल्प की भी अवहलेना की है। रासायनिक खेती के कारण भारतवर्ष में परम्परागत ढंग से अपनाए जाने वाले अहिंसक खेती के तौर-तरीकों को भी झुठलाया और ठुकराया गया है।
रासायनिक खेती और किसानों की आत्महत्या के बीच सहसम्बन्ध की चर्चा बहुत कम होती है। भारत में 80 प्रतिशत से अधिक किसान छोटे और सीमान्त हैं, जो गाँवों के गरीब तबके से सम्बन्धित हैं। छोटे किसान अधिक पीड़ा झेलते हैं। वर्ष 2014-15 में आत्महत्या करने वाले 73 प्रतिशत किसान छोटे और सीमान्त थे, जिनके पास दो एकड़ या इससे कम कृषिभूमि थी। रासायनिक खेती से जल, थल, पर्यावरण और उपज पर विपरीत असर होता है और किसानों की आत्महत्याएँ रोकने के अन्य उपाय नाकाफी साबित होते हैं। विश्व खाद्य व कृषि संगठन (एफएओ) ने स्पष्ट किया है कि रासायनिक खेती से किसानों की ऋणग्रस्तता बढ़ती है, जो उनकी आत्महत्या का एक मुख्य कारण बनती है।
29 अप्रेल 2013 की एक रिपोर्ट ‘ऑर्गनिक एग्रीकल्चर्स कॉण्ट्रीब्यूशन टू सस्टेनैबलिटी’ में बताया गया कि वर्ष 1997-2005 के बीच महाराष्ट्र में लगभग 30 हजार किसानों ने अपनी इहलीला समाप्त कर ली। इसके बिलकुल विपरीत, कृषि विशेषज्ञ देविन्दर शर्मा जमीनी हकीकत से रूबरू करवाते हैं कि जिन क्षेत्रों में कीटनाशक से मुक्त कृषि-प्रणाली है, वहाँ किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की। स्पष्ट है कि रासायनिक खेती जानलेवा है और जैविक खेती जीवनदायिनी है।
केन्द्र सरकार की रासायनिक खेती नीति ‘गुजरात राज्य बनाम मिर्जापुर मोती कुरेशी कसाब जमात एवं अन्य (2005), एआईआर 2006 एससी 212’ (मिर्जापुर मामला) की सात न्यायाधीशों की संवैधानिक खण्डपीठ के निर्णय-निर्देश के भी विरुद्ध है। सरकार अपनी रासायनिक खेती की नीति के तहत रासायनिक खेती क्षेत्र को एकतरफा भारी-भरकम अनुदान (लगभग 70000 करोड़ रुपये वार्षिक) देती है। रासायनिक खेती को यह अनुदान मिर्जापुर मामले के निर्णय-निर्देशों की खुली अवमानना है।
मिर्जापुर मामले के पैरा 36, 43 व 46 के अनुसार रासायनिक कृषि अरक्षणीय, कृषिभूमि व पर्यावरण के लिए घातक, जनस्वास्थ्य के लिए अहितकर तथा देश की अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ रही है। पैरा 45 के अनुसार रासायनिक उर्वरकों एवं रासायनिक कीटनाशकों के उत्पादन और प्रयोग को हतोत्साहित किया जाना चाहिये। इन वस्तुओं पर अनुदान (सबसिडी) कम या समाप्त कर देना चाहिये। इसके विपरीत जैविक खाद को अनुदानित और प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
यह आश्चर्यजनक है कि वर्ष 2005 के बाद भारत सरकार ने रासायनिक खेती को कम या खत्म करने की बजाय इसे निरन्तर बढ़ावा दिया है। वर्ष 2005 में रासायनिक खेती-बाड़ी के लिए 19389.64 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया, जो 2017-18 में 70000 करोड़ रुपये हो गया। अनुदान में यह बढ़ोतरी भी मिर्जापुर मामले के न्यायिक निर्देशों की खुली अवमानना है।
रासायनिक खेती पर अनुदान के कारण किसानों को जैविक खेती के विकल्प की ओर बढ़ने का अवसर ही नहीं मिलता है। पर्यावरणविद् वन्दना शिवा के अनुसार यदि जैविक खेती को बढ़ावा दिया जाए तो छोटे किसानों को फायदा होगा तथा इससे इतनी उपज होगी कि ‘दो भारत’ की खाद्य जरूरतें पूरी हो सकें। सत्तर के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति उस समय की तात्कालिक जरूरत को पूरा करने के लिए थी। उस समय रासायनिक उर्वरकों का उपयोग किया गया था। लेकिन उसके बाद रासायनिक उर्वरकों का उपयोग कम व बन्द नहीं किया गया, और उसके दुष्परिणाम सबके सामने हैं।
रासायनिक खेती हर तरह से नुकसानदेह है। अब तो फसलों की वृद्धि में रसायनों का प्रभाव खत्म होता जा रहा है। उल्टा, वह रसायन फसलों को विषैला जरूर बना रहा है। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में भारतीय खेतों में केवल 0.1 प्रतिशत कीटनाशक अपने लक्ष्य को पूरा कर पा रहे हैं। इसके विपरीत ये कीटनाशक मृदा और जल को दूषित करते हुए जनस्वास्थ्य के लिए हानिकर सिद्ध हो रहे हैं। ऐसे में वर्तमान की कृषि-नीति में आमूलचूल परिवर्तन की सख्त जरूरत है।
वैज्ञानिक, सरकारी और निजी अध्ययनों से यह सिद्ध हुआ है कि जैविक, पारम्परिक और अहिंसक खेती-बाड़ी से कृषि क्षेत्र को लाभकारी, स्वास्थ्यकारी, टिकाऊ और रोजगारसृजक बनाया जा सकता है। जैविक खेती होने से भूमि की उर्वरता बनी रहेगी और किसान कर्जदारी व दुष्काल से दूर रहेंगे। अब पूरी दुनिया में रासायनिक खेती के खिलाफ और जैविक खेती के पक्ष में निष्कर्ष मिल रहे हैं। अतः टिकाऊ खेती के लिए पूरी तरह से जैविक प्रणाली अपनाना आवश्यक है।
यह तथ्य है कि भारत सरकार तथा राज्य सरकारें जैविक खेती के मसले पर कुछ खास नहीं कर पाई हैं। हाँ, कागजों में सरकारी सजगता और सक्रियता नजर आती है। सरकार कागजों में मानती है कि जैविक खेती किसानों के लिए लाभदायक है। गरीबी उन्मूलन और स्थायी विकास के लिए कृषि प्रणाली को रसायनमुक्त करना जरूरी है। सरकार कागजों में मानती है कि कृषिभूमि की गुणवŸा में गिरावट चिन्ता का विषय है। रासायनिक खेती से कुल 14 करोड़ हेक्टेयर कृषिभूमि में-से लगभग 12 करोड़ हेक्टेयर कृषिभूमि की गुणववत्ता में गिरावट आई है।
सरकार कागजों में मानती है कि जैविक खेती प्रणाली अपनाकर किसानों की आत्महत्याएँ कम की जा सकती है। सरकार मानती है कि कृषि क्षेत्र से ग्रीन हाउस गैसों में कमी के लिए अल्प कार्बन-उत्सर्जन वाली कृषि-प्रणाली अपनानी होगी, और वह प्रणाली जैविक खेती है। सरकार मानती है कि जैविक खेती से मिट्टी की गुणवत्ता बनी रहती है तथा पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुँचता है। स्थायी व सतत खेती के लिए जैविक प्रणाली ही उपयुक्त है। सरकार अपील भी करती है कि पारम्परिक और आधुनिक कृषि में दूरी खत्म होनी चाहिये, ताकि मानव और प्रकृति के बीच तारतम्यता बनी रहे और आसन्न चुनौतियों का स्थायी हल मिल सके।
सरकार यह भी मानती है कि रासायनिक खेती की बजाय जैविक कृषि अपनाने से 50 हजार करोड़ रुपये सालाना राजस्व मिल सकता है। सरकार कहती है कि वह जैविक कृषि अपनाने के लिए किसानों को सलाह देने और उनकी सहायता करने के लिए तैयार है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आकाशवाणी से प्रसारित ‘मन की बात’ में 25 सितम्बर 2016 को कहा था कि केमिकल फर्टिलाइजर के कारण धरती की तबीयत को काफी नुकसान हो चुका है। 30 मई 2020 को हुए एक वेबिनार में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् ने कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल पर चिंता जाहिर की। लेकिन धैर्य के अभाव में सरकार व्यावहारिक स्तर पर जैविक उर्वरक और जैविक खेती के लिए उतना कुछ भी नहीं कर रही है, जितना मानती और कहती रही है।
वर्ष 2017-18 के बजट के आंकड़ों के अनुसार जैविक खेती के लिए सरकार ने मात्र 528.10 करोड़ रुपये का अनुदान दिया। यह अनुदान रासायनिक खेती के लिए आवंटित अनुदान 70080 करोड़ रुपये का मात्र 0.75 प्रतिशत ही है। भले ही भारत की परम्परिक खेती अरासायनिक या जैविक रही है, लेकिन वर्तमान में 1 प्रतिशत कृषिभूमि पर भी जैविक खेती नहीं हो रही है। भारत की कुल कृषिभूमि 18.20 करोड़ हेक्टेयर है। परम्परागत कृषि विकास योजना के अन्तर्गत वर्ष 2015-18 में 10 लाख एकड़ (404685.642 हेक्टर) भूमि ही जैविक खेती के अन्तर्गत लाई गई है। यह कुल कृषिभूमि की मात्र 0.22 प्रतिशत ही है। ऐसे नाममात्र के प्रयासों के आधार पर यह कैसे कहें कि सरकार जैविक खेती को बढ़ावा दे रही है।
2005 में मिर्जापुर मामले में न्यायालय ने जैविक खेती को भरपूर प्रोत्साहन देने के लिए कहा था। उसके बाद देश-दुनिया में सभी सरकारी और गैर-सरकारी निष्कर्षों और प्रतिवेदनों में रासायनिक खेती के नुकसान बताते हुए जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए कहा गया। अंकटाड (संयुक्तराष्ट्र व्यापार व विकास सम्मेलन) की ‘व्यापार व पर्यावरण समीक्षा 2013’ में कहा गया कि कृषि में आमूल परिवर्तन के लिए सर्वोच्च राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। समीक्षा में कहा गया है कि जागिये, ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाए। परिवर्तित जलवायु के चलते कृषि को सचमुच टिकाऊ बनाइये, जिससे खाद्य-सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
मिर्जापुर मामले में रासायनिक खेती को नुकसानदायक बताया गया था और सरकार से आग्रह किया गया था कि जैविक खेती को बढ़ावा दिया जाए। मिर्जापुर मामले के बाद भारत सरकार की अनुमान समिति (कमिटी ऑन एस्टिमेट्स ऑफ दि गवर्नमेंट ऑफ इंडिया) ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसका शीर्षक है- जैविक खेती पर राष्ट्रीय परियोजना-2015 (दी नेशनल प्रोजेक्ट ऑन ऑर्गनिक फॉर्मिंग-2015)। इस रिपोर्ट ने रासायनिक खेती को ‘हमारे वातावरण का रासायनिक विनाश’ (केमिकल एनिहिलेशन ऑफ ऑवर बायोस्फेयर) निरूपित किया और सरकार से अपील की कि वह जैविक खेती को व्यापक स्तर पर प्रोत्साहित करे। रिपोर्ट कहती है कि रासायनिक खेती को अत्यधिक और एकतरफा अनुदान दिया जा रहा है। यह चिन्ताजनक है कि केन्द्र सरकार की ऐसी कोई कार्ययोजना या संकेत नहीं है, जिससे जैविक खेती को समान स्तर पर भी लाने की बात हो। लगता है कि सरकारें जानबूझकर महत्वपूर्ण न्यायिक निर्देशों, वैज्ञानिक निष्कर्षों और सच्चाई को नजरअन्दाज कर रही हैं।
रासायनिक खेती रसायन उद्योग को बढ़ावा देती है। यह टिकाऊ कृषि को महत्व नहीं देती है। अनुमान समिति रिपोर्ट 2015 (दूसरा भाग, निष्कर्ष और अनुशंसाएँ, बिन्दु 14) में कहा गया है कि रासायनिक खेती को बढ़ावा देने वाली कम्पनियाँ पारम्परिक खेती को अप्रत्यक्ष रूप में इस प्रकार सहयोग करती है कि खुद कम्पनियों का ही व्यवसाय फले-फूले। वस्तुतः वे जैविक खेती को प्रोत्साहित नहीं करती है। अनुमान समिति रिपोर्ट 2015 (पैरा 3) में कहा गया है कि जैविक खेती को वांछित प्रोत्साहन, बल और वेग नहीं मिला है। रासायनिक खेती की तुलना में जैविक खेती के लिए सरकारी प्रयास सर्वथा अपर्याप्त हैं। सरकार को पर्याप्त धन के साथ ऐसी सुदृढ़ व समयबद्ध योजना बनानी चाहिये, जिससे कृषि में आमूल परिवर्तन किया जा सके यानी कृषि को रसायनों से मुक्त किया जा सके। अनुमान समिति की उक्त रिपोर्ट के 18वें बिंदु में कहा गया है कि जैविक खेती में अर्थतंत्र, पारिस्थितिकी तंत्र और देश के स्वास्थ्य को सुधारने की सुनिश्चित संभावनाएँ हैं।
वैज्ञानिक और कृषि-विशेषज्ञ कह रहे हैं कि रासायनिक खेती को अब अविलम्ब समाप्त कर देना चाहिये। दुनिया की आवश्यकताएँ जैविक खेती से ही स्थायी रूप में पूरी की जा सकेंगी। लेकिन शासक और प्रशासक अभी भी हरित क्रांति की तर्ज पर रासायनिक खेती के लिए संसाधनों में निवेश और आवंटन पर आमादा है। वस्तुतः देश, किसान, कृषि और पर्यावरण के हित में खतरनाक रासायनिक खेती को युद्ध स्तर पर कम करते हुए खत्म करना चाहिये। देश में रासायनिक उर्वरक और कीटनाशी दवाओं के उत्पादन, वितरण, क्रय-विक्रय और आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाना चाहिये। सरकार को चाहिये कि रासायनिक खेती के लिए आवंटित 70080 करोड़ रुपयों की अनुदान राशि को जैविक खेती के लिए नियोजित करे। पारंपरिक, आधुनिक और वैज्ञानिक तरीकों से जैविक खेती में कार्य करने वाले सरकारी और गैरसरकारी व्यक्तियों और संगठनों के साथ जुड़कर इस महत्वाकांक्षी कार्य को योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ाए।
‘दि हिन्दू’ (16-8-2017) में प्रकाशित अपने साक्षात्कार में कृषि वैज्ञानिक डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन कहते हैं कि जैविक खेती और प्राकृतिक उर्वरक के लिए किसानों को मवेशी रखने चाहिये - दि फार्मर मस्ट पजेस कैटल फॉर ऑर्गनिक मैन्योर। इंडियन ऑर्गनिक सेक्टर ने भी जनवरी-2016 में प्रकाशित ‘विज़न 2025’ में स्वीकार किया कि जैविक खेती के लिए मवेशी अत्यावश्यक है - कैटल आर इंटीग्रल टू ऑर्गनिक फॉर्मिंग। स्पष्ट है कि मवेशी कभी अनुपयोगी नहीं होते हैं। उनके गोबर और मूत्र से धरती प्राकृतिक रूप से उर्वर बनी रहती है। जैन धर्म के प्रथम अहिंसा अणुव्रत में पशुओं की उचित देखभाल तथा उनके साथ करुणामय व्यवहार की हिदायतें दी गई हैं। आगम युग में पशुपालन को खेती-बाड़ी, भारवहन, परिवहन तथा पर्यावरण संरक्षण से जोड़कर एक सहअस्तित्वपूर्ण निरामिष जीवन-प्रणाली की प्रतिष्ठा की गई है।
रासायनिक खेती से पर्यावरण को नुकसान हो रहा है। कीटनाशकों के छिड़काव से रंग-बिरंगी तितलियाँ और पर्यावरण-मित्र कीट भी मारे जाते हैं। परागण नहीं होने से पादप पारिस्थितिकी पर दुष्प्रभाव होता है। रासायनिक खेती जनहित और राष्ट्रहित के विरुद्ध है। इससे नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर आक्रमण हो रहा है। रासायनिक खेती की नीति भूमि और भूमिपुत्रों की जिन्दगी को तहस-नहस कर रही है। इससे अनेक संवैधानिक प्रावधानों, न्यायिक निर्णयों और पारम्परिक पद्धतियों की खुली अवहेलना हो रही है। जैविक खेती-बाड़ी को सर्वव्यापी बनाने के लिए इसके महत्व को हृदय से स्वीकार करना और परिवर्तन के लिए निहित अस्थायी व्यावसायिक स्वार्थों से ऊपर उठना अत्यंत आवश्यक है। इससे छोटे किसानों का भी संरक्षण होगा, ग्राम्य अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी और देश आत्मनिर्भर बनेगा। ग्राम-स्वराज और कृषिप्रधान भारत का गौरव अभिवर्धित होगा।
(अधिवक्ता पी. शिखरमल सुराणा, सुराणा एंड सुराणा इंटरनेशनल अटोर्नीज, चेन्नई के भागीदार एवं साहित्यकार डॉ. दिलीप धींग अंतरराष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन व शोध केन्द्र, चेन्नई के निदेशक हैं)
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