✍️नीरज मिश्रा
मेरी बेटी मेरा अभिमान है,
बोझ है। उसके सर पर दो कुलों का,
कभी सपने ,कभी मन्नत,
बोझ है। उसके सर पर दो कुलों का,
कभी सपने ,कभी मन्नत,
कभी अधूरी ख्वाहिश है वो,
देखती हूं उसमें अपना बचपन,
खो जाती हूं उसमें भूल के,
दुनिया की जद्दोजहद,
छुपा के सारे गम अपने,
खुशियां वह हम पर लुटाती है।
सिसकियां भर के अंधेरे कोनों में,
रोशन वह दो जहां को करती है।
कभी रवि सी तेज ,कभी मयंक सी शीतल,
कभी बारिश की रिमझिम बन जाती है ।
हर आंगन में उसके पायल की गूंज हो,
वह अनमोल रतन है मेरे संसार का,
ममता का बीज है वो,
अंकुरित, पुष्पित ,पल्लवित होते हैं।
रिश्ते उसकी छांव में क्योंकि
मेरी बेटी मेरा अभिमान है ,स्वाभिमान है।
देखती हूं उसमें अपना बचपन,
खो जाती हूं उसमें भूल के,
दुनिया की जद्दोजहद,
छुपा के सारे गम अपने,
खुशियां वह हम पर लुटाती है।
सिसकियां भर के अंधेरे कोनों में,
रोशन वह दो जहां को करती है।
कभी रवि सी तेज ,कभी मयंक सी शीतल,
कभी बारिश की रिमझिम बन जाती है ।
हर आंगन में उसके पायल की गूंज हो,
वह अनमोल रतन है मेरे संसार का,
ममता का बीज है वो,
अंकुरित, पुष्पित ,पल्लवित होते हैं।
रिश्ते उसकी छांव में क्योंकि
मेरी बेटी मेरा अभिमान है ,स्वाभिमान है।
*उरई,जालौन (उत्तर प्रदेश)
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