✍️कैलाश सोनी सार्थक
कैसा था कल दिखता रचित बुढ़ापे में
मन रहता क्यों हर पल भ्रमित बुढ़ापे में
बहु बेटे जब-जब दुत्कारे सच बोलूँ
लगता है तब जीवन दलित बुढ़ापे में
दौड़-भाग में देख जवानी है बीती
वो मानव रहता है व्यथित बुढापे में
खत्म जवानी की वो क्रोध, अकड़ सारी
फेल हुआ क्यों प्यारे गणित बुढ़ापे में
दुष्कर घातें चुप रहती है तब सारी
घटनाऐं वो होती घटित बुढ़ापे में
यही बुढ़ापा पतझड़ का आभास रचे
तन कब रहता अपना हरित बुढ़ापे में
जो डर सोनी रहे जवानी दूर रहा
खौफ वही मिल जाता अमित बुढ़ापे में
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