*सरिता सरस
जितना जुड़ती गयी
मैं..
उतना ही कटती गयी
मैं..
गांव का ओ मिट्टी का घर
जर्जर..
बारिश का रिसता पानी..
मुझे लगा पानी नहीं है
मेरे नसों में खून दौड़ गया....
अब घर नहीं बचे
इमारतें रह गई बस...
प्रेम शब्दों में रहा
जीवन आकर्षणों में बह गया..
घर खत्म हो गए
परिवार रह गया
और अब
परिवार के नाम पर बस किराएदार
रह गए.......
ठीक ऐसे ही..
विलुप्त हो रहा प्रेम ,
कितना कुछ हर रोज
प्रेम पर लिखा रचा जाता है
मगर अधिकतर
लेखनी कोरी है,
हंसी झूठी है ...
हमारी आत्मा भी
इस झूठ के ज़हर पर
विलाप करती होगी....
अब प्रेम विलुप्त हो जाएगा
सिर्फ शब्दों में रह जाएगा.....
हमारी कविताओं के
श्रृंगार का साधन.......
हमारी आत्मा के छलनी
होने का सबूत......
*गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
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