*कीर्ति शर्मा
मैं कॉरिडोर में घूम रही थी , इतने में मुझे विशाखा दिखी |
“ गुड आफ्टरनून मैडम! ”
“गुड आफ्टरनून! कैसी हो विशाखा ? कहाँ से आ रही हो? ”
“कुछ नहीं मैडम, सविता मौसी की बेटी बीमार थी | उसे डॉक्टर के पास दिखाने ले गयी थी | ” और हस्ते हुए चली गयी |
मैं कॉरिडोर का राउंड लगा कर ऑफिस में पहुंची और पुरानी यादों में खोने लगी |
विशाखा एक शांत, डरी , सहमी सी लड़की थी | कुछ पूछने पर गर्दन हिला देने वाली लड़की |
“क्नॉक क्नॉक ”
“अंदर आ जाओ ”
“मैडम, आपके लिए चाय या कॉफ़ी लाऊँ ?”
“ हाँ , एक कप कड़क कॉफ़ी |” और पेओन के जाते ही मेरे ख्वाब फिर उड़ान भरने लगे |
विशाखा के माता - पिता उसे यहाँ छोड़ने आए थे , वो इस शांत और सहमी सी लड़की को मेरे हवाले कर गए थे | मैं उससे बात करने की कोशिश करती , वो हर बात में गर्दन हिलाकर सहमति - असहमति जाहिर करती | मैं उसके डरने की वजह जानना चाहती थी पर वो दूरियाँ बनाती थी | फिर मैं एडमिशंस के काम में व्यस्त हो गयी और छः मास बीत गए। समय बदला , कॉलेज का माहौल बदला , कुछ नहीं बदला तो वो थी विशाखा |
“मैडम , कॉफ़ी स्ट्रांग है|”
“हाँ लाओ” और मैं कॉफ़ी पीने लगी | लेकिन अतीत की यादें मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे थे |
एक दिन कुछ ऐसा हुआ की उसने मुझे झकझोर दिया | कुछ लड़के हॉस्टल की लड़कियों को छेड़ रहे थे | उस सब को देख कर विशाखा बहुत विचलित हो गयी थी | माहौल तो सही हो गया था, लड़कों को सबक सीखा दिया गया था , लेकिन विशाखा और कमरे में बंद रहने लगी थी | मेरी उलझनें और बढ़ गयी थी |
“विशाखा ! विशाखा !”
“ यस मैडम”
“क्या कर रही हो, बेटा ?”
“कुछ नहीं , बैठी थी मैडम |”
“अच्छा, चलो आज तुम मुझे चाय बनाकर पिलाओ |”
“जी |” कहकर वो चाय बनाने चली गयी |
मैं उसकी पास में रखी डायरी देखने लगी | उसमे कुछ विचित्र सी चीज़ें थी | जिसे देखकर मैं सब कुछ समझने लगी | मुझे उसकी मनोदशा का भान होने लगा |
“लीजिये, चाय |”
“हाँ, लाओ … बैठो | विशाखा आज मैं तुमसे कुछ अपने दिल की बात करना चाहती हूँ | ”
“ बोलिये मैडम …”
“पहले बैठो।”
“जी।”
“पता है विशाखा, मैं तुम्हें अपनी आप-बीती सुनाना चाहती हूँ क्योंकि तुम्हारे अंदर मुझे अपनी छवि दिखाई देती हैं।”
विशाखा अपनी बड़ी-बड़ी नीरस आँखों से मुझे देख रही थी। थोड़ा रुक कर मैं फिर बोली , “ पता है विशाखा , गर्मी का समय था। मैं कॉलेज से घर जा रही थी। सड़क सुनसान थी , वैसे सड़क पर हमेशा चहल-पहल बनी रहती थी। गर्मी की दोपहर में सब घरों में घुस जाते थे। मैं अपनी धुन मैं चली जा रही थी। कुछ लड़के मेरा पीछा कर रहे थे लेकिन अपना वहम समझ कर आगे बढ़ गयी , लेकिन यह मेरा वहम नहीं था। वह लड़के मेरा पीछा करते - करते मेरे नज़दीक आ गए और हरकतें करने लगे। मैं चिल्लाई , धमकी दी , पर वो हँसने लगे। मैंने भागने की कोशिश की लेकिन नाकामयाब रही । और मेरे साथ वह हो गया जो नहीं होना चाहिए था। मैं हैरान-परेशान फटेहाल घर पहुँची और माँ के गले लगकर रोने लगी। माँ ने यह सब देखकर मामला समझ लिया। उसके बाद उन्होंने मुझे दिलासा दी , घर से बाहर न निकलने की सलाह दी , किसी को न बताने की हिदायत दी और चुप हो जाने के लिए कहा क्योंकि मैं लड़की थी , बदनामी हो जाती लेकिन इस हादसे ने मेरा जीवन बदल दिया। मैं घबरा कर , डर कर रहने लगी लेकिन एक दिन मेरी सहेली की बेटी ने मुझे जीने का रास्ता बता दिया।
उस छोटी सी, नन्ही सी जान से मैंने ज़िन्दगी का फलसफा सीखा , बैठने से, रुकने से जीवन नहीं कटता। जीवन बोझ बन जाता हैं। आगे बढ़ना ही जीवन का नाम हैं। मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की और यहाँ आ गयी। कॉलेज मैं प्रिंसिपल और हॉस्टल में वार्डन का काम पकड़ लिया।”
इतने में विशाखा के रोने की आवाज़ आने लगी और मेरे पूछने पर उसने बताया की जब वो सात - आठ साल की रही होगी , उस वक़्त कुछ दरिंदों ने गलत करने की मंशा से उसे पकड़ लिया। दरिंदो के चंगुल से विशाखा छूट तो गयी लेकिन डर और खौफ के साये में छुप गयी। पर मेरी बात ने उसे एक नया जोश दिया एक नई दिशा दिखाई और विशाखा ने अपना नया और पहला कदम रखा।
आज वही विशाखा शांत नदी सी बहने लगी है , सबकी मदद करना उसने अपना लक्ष्य बना लिया है। अब वो खुल कर हस्ती, बोलती है। उसका यह नया और पहला कदम मुझे गर्व महसूस कराता हैं।
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