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मुक्तक



*अ कीर्ति वर्धन

बचपन  की अठखेलियाँ , कब  कहीं  मोहताज  हैं,

बाधाओं  की  चिन्ताओं से, कब  कहीं  मोहताज है

आग मे भी हाथ डालें, पानी  से बचपन डरता नही,

साँप से खेलता है बचपन,  कब  कहीं मोहताज है?

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अहंकार  का  बोझ  जब , सिर   पर   चढने   लगा,

आदमी  को  आदमी  तब , कीड़े  सा  लगने  लगा|

ढोने  लगा  वह  बोझ अपना, अपने कांधो पर यहाँ,

आदमी से आदमियत का, अहसास भी घटने लगा|

*मुजफ्फरनगर

 


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