*अशोक चन्द्र दुबे 'अशोक'
कोरोना सुरसा सरिस, यह मायावी रोग।
हो जाएं हम मसक से, करें बुद्धि उपयोग।।
रक्तबीज सा यह असुर, आज रहा ललकार।
मानव शस्त्र विहीन है, किन्तु नही लाचार।।
जैसा शत्रु समक्ष हो, वैसा लें हथियार।
जहाँ काम करती सुई, व्यर्थ वहाँ तलवार।।
हठधर्मी से घूमकर, जीत न पायें युद्ध।
क्यूँ देते हम असुर को, यूं आमंत्रण शुद्ध।।
दो गज में सिमटी जहां,इस रिपु की औकात।
कोरोना की देखिये, कुछ भी नहीं बिसात।।
घर में ही छिप असुर का, करें मार्ग अवरुद्ध।
शान्त रहें, घर में रहें, सुनिये, सुहृद, सुबुद्ध।।
मास्क, योग, साबुन, हळद, सेनिटाइजर संग।
कोरोना हो जायेगा, इनको देख अपंग।।
हम सामाजिक जनम से, क्यों अपनों से दूर।
अमा तमा सा नष्ट हो, कल कोरोना क्रूर।।
भौतिक दूरी मनुज से, मजबूरी है आज।
इन सबको अपनाइये, होगा सुखी समाज।।
बस कुछ दिन की बात है, मिल जाये उपचार।
रोकथाम टीका सभी, कर दे नष्ट विकार।।
धीरज धर कर टालिये, सभी घात-अपघात।
निशाकाल के बाद ही, आता सुखद प्रभात।।
फिर सब होगा पूर्ववत, मिलना जुलना खूब।
सरसें हरसें मनुज फिर, ज्यों धरती पर दूब।।
आये हैं, आते रहें, बड़े - बड़े, तूफान।
मिटा न पाये आज तक, भारत की पहचान।।
*संपादक- विप्रवाणी भोपाल (म.प्र.)
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