*विजयानंद विजय
होली का रंगारंग त्योहार बीता ही था कि लॉकडाउन घोषित हो गया और पूूरा देेेश बंंद हो गया। रेल-बसेंं, स्कूल, कॉलेज, ऑफिस सब बंद। खुद भी घर मेें बंद रहो !हर चैनल पर सिर्फ कोरोना की ही चर्चा। न्यूज सुनने-देखने में भी अब डर लगने लगा है।दहशत हो जा रही है। रिमोट रखकर वह बालकनी में आ जाता है।बाहर कोई भी नजर नहीं आ रहा है...न दूधवाला, न अखबारवाला, न कचरा ले जाने वाला। सड़क के किनारे एक नाई कुर्सी लगाकर बैठता था, वह भी अब नहीं आ रहा है। कोने पर पान की एक दुकान थी, वह भी बंद हो गयी है। बगल में कंस्ट्रक्शन का काम रूक गया है।बाँस-बल्ले अभी भी उसी तरह लगे हुए हैं।सामने वाली रेलवे गुमटी, जो हर पाँच मिनट पर सायरन की आवाज के साथ खुलती-बंद होती थी, अब खुली ही रहती है। गाड़ियों का " पीं-पीं पों-पों " शोर अब नहीं सुनाई पड़ता। सब कुछ शांत, निष्पंद।
वह माधवी को दिल्ली फोन लगाता है। पर इंगेज। उफ़्फ ! जाने और कितने दिनों तक चलेगा यह लॉकडाउन.....? चाय पीने की इच्छा हुई, तो वह किचेन में आया।फ्रिज से दूध निकाला।ओह ! सब्जियाँँ तो खत्म हो गयी हैं। वह घड़ी देखता है...आठ बज रहे हैं। अभी सब्जी मिल सकती है।
वह बाहर सड़क पर आता है। फिर उसे याद आता है कि कई दिनों से सब्जी का ठेलावाला भी तो नहीं आ रहा है ! वह लौटने लगता है। सहसा दूर सड़क पर उसकी नजर जाती है और वह रूक जाता है।कोई साईकिल सवार आ रहा है।बोरे जैसा कुछ बाँध तो रखा है उसने पीछे अपनी साईकिल पर ? शायद...! साईकिल वाला पास आकर पूछता है - " सब्जी लेनी है साहब ? "
" हाँ...हाँ, भाई। " - वह खुश हो जाता है - " क्या-क्या है तुम्हारे पास ? "
" भिंडी...परवल, कद्दू, बैंगन, पालक साग...। "
" अच्छा।भिंडी कैसे है ? "
" बीस रूपये किलो। "
" परवल ? "
" बीस रूपये। "
" बैंगन ? "
" बीस रूपये। "
" और पालक साग ? "
" दस रूपये। "
सब्जियों के दाम सुनकर वह चकित रह गया।
" भाई, बाजार में तो ये सब्जियाँँ तीस-चालीस रूपये किलो बिक रही हैंं। और तुम इतने सस्ते में...? " - वह पूछे बिना न रह सका।
" साहब, मैं किसान हूँ।अपने घर-परिवार के लिए सब्जियाँँ उपजाता हूँ।इस लॉकडाउन में आप शहर वालों को कोई परेशानी न हो, इसलिए सुबह-सुबह सब्जियाँँ तोड़कर इधर एक चक्कर लगा लेता हूँ। मुझे दुकानदारी थोड़े न करनी है ? " - सहजता से, मुस्कुराते हुए उसने कहा।
" ठीक है। एक किलो भिंडी दे दो और आधा किलो पालक साग। " - पचास रूपये बढ़ाते हुए उसने कहा।
" पच्चीस रूपये ही तो हुए, साहब।इतना क्यों दे रहे हैं ? "
" रख लो भाई। तुम्हारे काम आएँगे। "
" नहीं साहब, नहीं।अगर मैं ये पैसे ले भी लेता हूँ, तो भी मेरे परिवार वाले और बच्चे ऐसे ही रहेंगे।आपको भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा।पर मैं ऐसा करके अपनी आत्मा को मारना नहीं चाहता। " - भिंडी और पालक साग तौलकर थैले में डाल, पच्चीस रूपये वापस लौटाते हुए उसने हाथ जोड़ लिए। उसके चेहरे पर इंसानियत की दिव्य चमक साफ दिखाई दे रही थी।
सब्जीवाला आगे बढ़ गया, और नजरों से ओझल होने तक वह उसे देखता ही रहा....।
*बक्सर, बिहार
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