*अशोक'आनन'
सूरज ने
गर्मी की भट्टी -
फ़िर सुलगाई ।
थार - सा तप रहा -
बदन का पोर - पोर ।
पानी का कहीं भी -
दिखे न ओर - छोर ।
प्यासे कुओं की
ज़ान पर -
अब बन आई ।
आत्म - घात पर हैं -
उतारू प्यासी नदियां ।
ग्रीष्म का है आतंक -
बस्ती हुईं भूतिया ।
लू का है साया
आंख ज़रा -
न लग पाई ।
पेड़ों पर झुलसे -
पांव पखेरुओं के ।
दोपहरिया बनाए -
रेखा - चित्र धुंओं के ।
धधकती दोपहरी -
हवा -
झुलसकर आई ।
*मक्सी ,जिला - शाजापुर ( म.प्र.)
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