*उमेश भट्ट 'आनंद'
बेशक़्ल मौत है कब से खड़ी इंतज़ार में।
घर से निकल के आ तो ज़रा तू बाज़ार में |
ज़िद पे अड़ी है मौत, वो ले जाएगी उसे।
आज़ादःरो जो भी, फिरे है बाज़ार में।
दीवार पर वो टंग गए, तस्वीर में ढल कर।
बेखौफ हो जो फिर रहे थे, कल बाजार में।
ये वक्त मुनासिब नहीं, घर ही में तू ठहर।
नाशक्ल मौत फिर रही हर सूं बाज़ार में।
वेशक्ल मौत दीन-ओ-धरम जानती नहीं।
सबका करे शिकार वो है इस आज़ार में।
ये दौर-ए-ग़दद है गज़ा-ए-वक्त नहीं है।
रह ऐतिकाफ में ना भटक तू बाज़ार में |
वो चारागर ही कह रहा मुश्किल है ये घड़ी
नाकाम है हर चारागरी इस आज़ार में।
ये इम्तिहान की घड़ी है तेरे सब्र की।
बेसब्र होके तू ना निकल अब बाज़ार में।
पाबंदियों में जीना ही इसका है इक इलाज
रख दूरियाँ ही सबसे मिलो अब बाज़ार में|
*उज्जैन म.प्र.
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