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बता मुझे क्या दोष था मेरा



*दिव्यांश जोशी

सोचा था मैंने मन ही मन की ये कितने दयालु हैं,

इंसान रूप को धारण कर के आये जो कृपालु हैं,

पर भीतर ही भीतर से वो निकृष्ट शातिर हैं निकले,

वो तो माँ के संग संग बच्चे के भी क़ातिल हैं निकले।

मैं तब गर्भ में भ्रूण के साथ थोड़ी थोड़ी भूखी थी,

ढूँढ रही थी मैं भी खाना, कुछ दिन से रूखी सुखी थी,

सोचा था इतने से में जठर की अग्नि बुझा ही लूंगी,

फिर धीरे धीरे चलकर, आगे की सोच को सुझा ही लूंगी,

दिखने में तो फल ही था, जो खाने को दिया था प्यार से,

सोचा न था कि मुख को मेरे, चिरेगा अपने व्यवहार से,

बता मुझे क्या दोष था मेरा, तेरे इस अहंकारी संसार में,

क्यों न बनने दिया मेरे सपनों को उनके अपने आकार में।

हे पापी, ये पापकर्म की सारी हदें तूने जो लाँघ दी हैं,

रूह को मेरी छलनी कर के जाने कैसे तूने टाँग दी हैं,

देख ज़रा अब तूने ही, तेरे नर्क द्वार को कितना सजाया हैं,

माँ बच्चे की हत्या कर के, तूने भारत माँ को लजाया हैं।

*बाँसवाड़ा राजस्थान

 


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