*पूजा झा
वो पावस की रात आज
घिर - घिर के फिर आयी है,
उम्मीदों के नए छोड़ से
नव प्रभात की लाली है,
सीमाहीन क्षितिज के मुख पर
क्यों उदासी के बादल हैं?
भूल गया पतझड़ बीतेगा
जब आएगा वो बसंत।
काली रात घिर आयी तो क्या
अंधियारा कुछ पल का है
भोर की लाली की बेला में,
स्वर्णिम कुछ पल मेरा है
कभी तो गूँजेगी जीवन के
उपवन में मेरे संगीत
जब आएगा वो बसंत।
ख़्वाबों की तप से मेरी
मुखमंडल की शोभा गहरी,
दर्पण के आगे प्रतीत यूं
जैसे खुद की नजरें ठहरीं,
अरमानों की लिबास ओढकर
जैसे हो कोई नई-नवेली
भर के नैनों में प्रसंग
जब आएगा वो बसंत।।
*पूजा झा,हाजीपुर,जंदाहा
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