*अशोक 'आनन '
गांव छोड़ हम शहरों में आ गए ।
दुनिया की सारी खुशियां पा गए ।
सर्व सुविधायुक्त है मक़ान ।
यंत्रवत - सा है हर इंसान ।
भीड़ भरा शहर भी लगता -
हो जैसे कोई श्मशान ।
बब्बा , दद्दा , अम्मां जैसे -
संबोधन हम भुला गए ।
सूरत उनकी भोली - भाली ।
शहद सरीखी जिनकी बोली ।
हम भी पल में उनके हो गए -
प्रेम की जिनने पोथी खोली ।
आंगन , देहरी, तुलसी , बरगद -
अपनी आंखें फिर भिंगो गए ।
मोम सरीखे न हृदय मिले ।
नागफनियों में न फूल खिले ।
घर के पतों पर न घर मिले -
घरों के ख़ारिज हुए दाख़िले ।
अपनों की हाटों से ज़्यादा -
गैरों के अब मेले भा गए ।
*अशोक 'आनन '
मक्सी,जिला-शाजापुर ( म.प्र.)
साहित्य, कला, संस्कृति और समाज से जुड़ी लेख/रचनाएँ/समाचार अब नये वेब पोर्टल शाश्वत सृजन पर देखे- http://shashwatsrijan.comयूटूयुब चैनल देखें और सब्सक्राइब करे- https://www.youtube.com/channel/UCpRyX9VM7WEY39QytlBjZiw
0 टिप्पणियाँ