ईश्वर ने जिस खेल को रचा है उसे समझना शायद ही सम्भव हो मगर इंसानी फितरत के बीच आई यह बीमारी संबन्धों पर जिस तरह भारी पड़ी है उसकी कल्पना भी नहीं थी। बीमारी ने पांव पसारे तो रिश्तों ने अपनी बांहें भींच ली। लाॅकडाउन का पहला पड़ाव ही मुझ पर भारी पड़ा क्योंकि अभी मेरी बेटी बहुत छोटी है और एक दूसरे से दूरी का मतलब वह समझती भी नहीं है। वह इसी आशा के साथ रोज खुद को बड़ा होता हुआ देखती है कि उसके आसपास के घरों में रहे परिवार जन उसे इसी तरह प्यार करते रहेंगे। उसकी कल्पना ने अपने पांव पटक दिये जब वह पड़ौस में रहने वाले किसी भी व्यक्ति की गोद में जाने के लिए अपने वात्सल्य के प्रेम को लेकर दौड़ पड़ती किन्तु खुद को अकेला पाती। यह देखकर उसका वात्सल्य उत्तेजित हो जाता किन्तु सामने खड़ा व्यक्ति अपने जीवन के प्रति अपनी निष्ठा को और कड़ा करके चल देता अपने घर की ओर मेरी बेटी देखती रह जाती। देख रही हर रोज इन रिश्तों को ऐसे जैसे जमीन से देखकर रही हो आसमान में चलता हुआ चांद। जो उसका कभी नहीं हो सकता और लौट पड़ती है मेरी गोदी में और लगा लेती है मुझे अपने सीने से हल्की सी मुस्कान के चुम्बनों के बीच वह समझा रही है अपना दिल। मेरे ऊपर अपने वात्सल्य का अथाह प्यार लुटाकर वह खुद को निहाल कर लेती है।
*सुरजीत मान जलईया सिंह,दुलियाजान, असम
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