*उपेन्द्र द्विवेदी
किस पर यकीं करूँ जब हर हाथों में खंजर है
मौन हमारा सिसक रहा है कैसा ख़ूनी मंजर है।
जमीं सहमती घबराई पथराई सी दिखती है
दर्द समेटे हुऐ सिसकता हुआ दहकता अंबर है।
ख़ाक मौत से बच पाएगा तू लाख जतन कर ले
आज किसी की बारी थी अगला तेरा नंबर है।
दरियाओं के सूखे आँचल कश्ती साहिल छूटे
इनकी विपदाओं पर भी कितना हंसा समंदर है।
नेक नियत ही नियति के ख़तरे कुछ कम करती
बाकी जग तो जान रहा है क्या तेरे -मेंरे अन्दर है।
किसके रुतबे यहां राम के आदर्शों से बड़े हुये
भारत भू पर घुटने टेके मरता हुआ सिकंदर है।।
*ताला,जिला सतना म .प्र.
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