*सुनीता शानू,
बेवड़ा किसे बोला? ये देश की अर्थव्यवस्था को संभालने का माद्दा रखते हैं जनाब। क्या आप जानना चाहते हैं सच्चाई, तो आपको चलना होगा उस भीड़ के करीब जो कल शराब की दुकानों के सामने लगी हुई थी। इस भीड़ में मजदूर वर्ग के लोगों को देखकर सचमुच आश्चर्य हो रहा था, साथ भी गुस्सा भी आ रहा था। फेसबुक और व्हाट्स एप्प पर कोसा जा रहा था, और न जाने कितने एनजीओ ने यह सोचकर खाना भी नहीं खिलाया होगा कि इनके पास जब शराब के लिए पैसा है तो फ्री में राशन देने की जरूरत क्या है?
आपको जानकर हंसी आएगी और हो सकता है आपका संवेदनशील मन रो भी पड़े। गरीब आदमी में दुनिया भर के ऐब होते हैं क्योंकि उसका सबसे बड़ा ऐब ग़रीब होना है। जबकि अमीरों की कमियां हमेशा शौक बन जाती हैं। तो नई सोच सोसायटी और राजस्थान डायरी की टीम सच्चाई का पता करने निकल ही गई और इसकी ज़मीनी हक़ीक़त को जान पाई।
आपको याद होगा नोट बंदी के समय बहुत सारे मजदूर सौ रूपए के लालच में बैंक की लंबी लाइन में लग गए थे। कल भी कुछ ऐसा ही हुआ। नई सोच सोसायटी के अध्यक्ष वरुण जैन ने वहां खड़े मजदूरों से पूछताछ की तो पता चला कि शराब की एक बोतल ही नहीं पूरी पेटी खरीदनी है जिसके उसे पैसे मिलेंगे। वहां कुछ मजदूर महिलाएं भी थीं जो बस लाइन में लगने का पैसा ले रही थीं। कुछ लोग इसलिए खरीद रहे थे ताकि ब्लैक कर सकें। हां एक बात और सामने आई वह थी घर के गुल्लक फोड़ कर कुछ शराबी भी शराब लेने पहुंच गए थे। लेकिन वह गिनती में कम ही थे। भूखे गरीब अभी भी दाल रोटी की लाइन में खड़े नज़र आए।
अब मैं सोचती हूं तो बस इतना कि जो मजदूर घर जाना चाहते थे उन्हें क्यों रोक दिया गया, बाहर दो से चार घूमने वालों को क्यों मुर्गा बनाया गया, रातों रात क्यों सारी फैक्ट्रियां बंद हो गई, क्यों लाखों मजदूरों के हाथ काटकर भिखारी बना दिया गया। क्यों पुलिस अपना घर परिवार छोड़ कर ड्यूटी पर खड़ी रही, क्यों डॉक्टर डेढ़ महीने से घर नहीं जा पाए। शराब की दुकानों का खुलना इतना जरूरी क्यों हो गया था? यह किसकी जरूरत थी जिसने सबकी मेहनत पर पानी फेर दिया। आज हर देश बस भारत की तरफ देख रहा है। कल तक जहां तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे आज बस सवाल पर सवाल खड़े हैं। और वह सवाल भी आम जनता से किए जा रहे हैं चैनल वाले चिल्ला-चिल्ला कर ग़रीब जनता से ही पूछ रहे हैं... इतनी क्या जल्दी थी जो सुबह-सुबह लाइन में लग गए, फिर लंबी लाइन दिखा कर कहा गया, देखिए इनके पास खाने के पैसे नहीं और शराब के लिए पैसे कहां से आ गए, फिर पुलिस भी मारती और हटाती है, भीड़ को छांटती है, बस सबके मुंह से यही निकलता है, बेवड़े कहीं के...।
*सुनीता शानू, दिल्ली
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