*शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'
समझ में आता नहीं यह,
किस तरह का दौर है।
आदमी हर आदमी से
दूर है, संदेह में,
क्षति पहुँच जाए न कोई,
छटपटाहट देह में,
है अचंभित भाव-व्यंजन,
छिना मुँह का कौर है।
पेड़ के पत्तों में डर है,
हैं डरातीं टहनियाँ,
हो उपेक्षा, धाँधली न,
हैं सशंकित धमनियाँ,
जोहता फागुन टिकोरा,
संशयित हर बौर है।
शहर जाना चाहता है,
लौट अपने गाँव में,
उपज की अँगड़ाइयों में,
बरगदों की छाँव में,
सोचती है नागरिकता,
सोचता हर पौर है।
बुन रहा दायित्व उभरा,
चादरा सुख-शांति का,
वह गिराना चाहता है,
बंध फैली भ्रांति का,
आकलन में है प्रशासन,
अन्वयन पर ग़ौर है।
*शिवानन्द सिंह 'सहयोगी',मेरठ
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