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सदाचारी मानव राम तथा दुराचारी मनुष्य रावण आदि के समान


*डाॅ० सिकन्दर लाल प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)अंहकार से युक्त एक रावण मारा गया , फिर भी अभी  कुछ मूर्ख एवं पाखण्डी मनुष्य जन्म के आधार पर अपने को ऊँच ,श्रेष्ठ, उच्च वंश आदि का मानकर रावण के रूप में रह रहा  है जबकि सदाचारी मानव राम तथा दूराचारी मनुष्य रावण और सदाचारी मानव ऊँच तथा दुराचारी मनुष्य नीच और वैसे भी ईश्वर ने किसी मनुष्य को ,शरीर पर पहचान हेतु ठप्पा या मुहर लगा कर जन्म नहीं दिया है | समाज के सकारात्मक विकास में जिस व्यक्ति की जिस रूप में भूमिका होती है,वही उस व्यक्ति की पहचान होती है साथ ही सत्कर्म के अनुरूप व्यक्ति का समय- समय पर बदलता रहता है| फिर भी अहंकार से ग्रस्त होकर कुछ मूर्ख एवं पाखण्डी मनुष्य कुकर्म करते हुए भी अपने को जन्म के आधार पर ऊँच, श्रेष्ठ मान रहा है, तभी तो परम ज्ञानी संत तुलसीदास जी लिखते हैं कि-ऊँच  निवास  नीच  करतूती।देखि न सकहिं पराइ बिभूती ||
(रामचरितमानस अयोध्याकाण्ड,  पृष्ठ- 296) करतब बायस वेष मराला। 
(रामचरितमानस बालकाण्ड, पृष्ठ- 15)
भारत देश रूपी पावन धाम में विराजमान् जिन मानवों को, ये कुछ मूर्ख एवं पाखण्डी मनुष्य जन्म के आधार पर नीच मान रहे हैं |तब जन्म के आधार पर अपने - आप को ऊँच आदि मानने वाले ये मूर्ख एवं पाखण्डी लोग, मानवों ( जिन मानवों को मूर्ख लोग जन्म के आधार पर नीच मानकर घृणा करते हुए जान- बूझकर हानि पहुँचाते हैं)  द्वारा उगाये गये अन्न, बनाये गये कपड़ा, बनाये गये खाना,बनाये गये बिस्किट, बनाये गये सूप-चलनी ,बनाये गये कार,ट्रेन, जहाज, बनाये गये घर इत्यादि किसी भी वस्तु  का उपयोग न करे,बल्कि ये कुछ मूर्ख लोग स्वयं के द्वारा बनाये गये वस्तु का उपयोग करें। जब ये कुछ पाखण्डी एवं मूर्ख मनुष्य ऐसा नहीं कर सकते तो क्यों अपने- आप को जन्म के आधार पर, संसार रूपी धाम में विराजमान् मानव के समक्ष अपने- आपको ऊँच, श्रेष्ठ, स्पृश्य , उच्च वंश आदि का मान रहा है|


संसार रूपी पावन धाम में विराजमान् शूद्र (सभी मानव एवं जीव-जंतु रूपी मूर्तियाँ ) से जो मनुष्य अपने- आप को ऊँच और श्रेष्ठ मान रहा है वह इस पृथ्वी माता के अतिरिक्त दूसरी पृथ्वी को खोज ले अन्यथा इस पृथ्वी माता पर रहेगा तो पावन ग्रन्थ रामचरितमानस एवं ऋग्वेद के पुरुष सूक्त 10/90 का 01 से 14 एवं विष्णु सूक्त 01/154 के 01से 06 तक के मंत्र के अनुसार शूद्र अर्थात् संन्यासी ही कहा जाएगा क्योंकि माता पृथ्वी एक ही हैं, जिसे पावन ग्रन्थ ऋग्वेद के पुरुष सूक्त 19/90 का 14 वें मंत्र के अनुसार परमात्मा ने अपने पवित्र पैर से निर्माण किया है इसलिए सम्पूर्ण माता पृथ्वी शूद्र हैं | इसी तरह माँ गंगा भी भगवान् विष्णु के पैर से उत्पन्न हुई हैं इसलिए माँ गंगा भी संसार रूपी पावन धाम में विराजमान् मानव एवं जीव-जंतु रूपी मूर्तियों की सेवा करने के कारण शूद्र अर्थात् संन्यासिनी  हैं, अतएव माँ गंगा इत्यादि महान् नदियाँ हमारे लिए पूजनीय हैं | कहने का तात्पर्य यह है कि इस माता पृथ्वी पर मात्र शूद्र ( सम्पूर्ण मानव एवं जीव- जन्तु) ही है | शूद्र अर्थात् सम्पूर्ण मानव| भावार्थ इस संसार में जो कोई आया है वह ईश्वर के दिये हुये पदार्थ का सदुपयोग करके ईश्वर के चरणों में विलीन हो जायेगा अर्थात् कुछ लेकर मानव कहीं नहीं जा पायेगा क्योंकि वेद के अनुसार सभी मानव एवं जीव - जन्तु से युक्त माता पृथ्वी परमात्मा के पैर से उत्पन्न हुई हैं |


इसलिए इस संसार में शूद्र अर्थात् संन्यासी के अतिरिक्त कोई नहीं है |लेकिन रावण, शिशुपाल, तथा कंश आदि के समान हमारे देश में मौजूद कुछ पाखण्डी एवं मूर्ख मनुष्य कुकर्म करते हुए भी अपने-आप को जन्म के आधार पर  ऊँच, स्पृश्य, उच्च वंश आदि का मानकर फूलें न समाता हुआ विना मेहनत परिश्रम के बेठे-बैठे खाने और अपना घर-परिवार सजाने के लिए , भोले-भाले मानवों को झूठ-मूठ का प्रवचन देकर ठगने के लिए माँ गंगा जैसी  महान् नदियों के तट को धर्म के नाम पर कब्जा करके एक तरफ इनकी चौड़ाई को कम करते जा रहे हैं और दूसरी तरफ इनके पावन जल को, नहा-धोकर दूषित कर रहे हैं। माँ गंगा के पावन जल को ये कुछ पाखण्डी एवं मूर्ख मनुष्य तथा भोले-भाले मानव लोग दूषित करें और सरकार से स्वच्छ जल की उम्मीद करते हैं, जबकि पावन ग्रन्थ उपनिषद् आदि में धर्म-पर्व तथा कुम्भ मेला आदि के नाम पर माँ गंगा इत्यादि महान् नदियों में नहा-धोकर जल को दूषित करने की बात नहीं है और न ही जमीन कब्जा करने की | इसी तरह हमारे देश- समाज में मौजूद कुछ अधिकारी/ कर्मचारी, नेता, मंत्री, एडवोकेट, न्यायधीश, शिक्षक, व्यापारी, आदि भी हैं, जो बेईमानी से धन- दौलत आदि इकट्ठा करके अपना घर- परिवार सजाये हुए हैं जो कि कुकर्म करने के कारण नीच ही कहे जायेंगे | जबकि इसके विपरीत जो  इस संसार को धाम मानकर और इसमें रहने वाले सम्पूर्ण मानव एवं जीव- जन्तु को मूर्ति मानकर, इनकी सेवा- सुरक्षा में अपनी क्षमतानुसार लगा हुआ है और बदले में  ईमानदारी की कमाई में जो कुछ भी यश तथा पैसा आदि  मिलता है, उसी में खुश रहकर  अपना घर - परिवार चलाते हुए, अपना जीवन निर्वाह करता है, वास्तव में वही मानव राम के समान हैं | अतैव उपर्युक्त चिन्तन से स्पष्ट है कि सदाचारी मानव राम तथा दुराचारी मनुष्य रावण, कंश के समान है।
  
*डाॅ० सिकन्दर लाल प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)


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