डॉ. अश्विनी
आज बरसों बाद अपनी जन्मभूमि लौटी हूं| 10 साल की थी जब यहां से गई थी| अपना घर होते हुए भी इतने सालों में मैंने मुड़कर नहीं देखा| ऐसा नहीं था कि इन गलियों , इन चौराहों कि मुझे याद नहीं आती थी, मगर कुछ ऐसी कड़वी यादें भी थी जो मन में टीस जगा जाती थी| मां और पापा साल 2 साल में एक चक्कर लगा जाते थे| मगर उनके देहांत के बाद तो वह कड़ी भी टूट गई| आज मेरी रिसर्च मुझे यहां वापस ले आई है| यहां आकर मेरी खोज पूरी होगी या फिर किसी और कारण से मेरी किस्मत मुझे यहां खींच लाई है| ऐसे कई संकोच भरे सवाल लेकर मैं मुंबई से चली थी| सारी शंका व सारे संकोच स्टेशन पर उतरते ही छू हो गए|
तेजी से बदलती इस दुनिया ने इतने सालों में इस शहर को भी पूरा आधुनिक बना दिया है| मगर सच माने, मेरी बचपन की यादों वाला देहरादून आज भी जस का तस है| लोग कहते हैं कि इतने सालों में शहर की काया ही पलट गई| सच है| काया तो पलट गई मगर आत्मा वही है| फिजा भी वही, लीची अमरूद के बाग भी वही और यहां के लोगों की सादगी और भोलापन भी| इन्हीं सब से ही तो बनती है एक जगह की आत्मा। जिसे बस महसूस किया जा सकता है|
जब यहां से गई थी तब मैं बच्ची थी और आज अपनी बच्ची के साथ लौटी हूं| "सामान को ऐसे ही रहने देते हैं| आकर अनपैक करेंगे|" रवि बोले| " आकर? कहां जाना है? अभी अभी तो आए हैं| अभी तो पूरा घर भी नहीं देखा पापा|" छोटी रूही ने मुंह बना कर कहा। " अरे बाबा हम पूरी छुट्टियां यही है। जल्दी क्या है?" रवि ने उसे दुलारते हुए कहा। मैंने भी सोचा ठीक ही है अभी घर में खाना बनाने का सामान है भी नहीं और शीला को तकलीफ देना भी ठीक नहीं। पहले ही क्या कम तकलीफ दी है। हमारे आने से पहले उसने सारे घर की सफाई करवाई थी। वैसे बचपन की दोस्त पर इतना हक तो बनता ही है। यही सब सोचती मैं फ्रेश होने चली गई।
धीरे धीरे शाम ढलकर रात में तब्दील हो रही थी। दुकानों की बत्तीयां जल उठी। अब तो मुझे यूँ लग रहा था मानो मैं पापा का हाथ पकड़े सजी हुई दुकानों को निहारती चली जा रही हूँ। रवि और रूही भी इस खूबसूरत पहाड़ी शाम का मजा ले रहे थे मगर मेरी तरह नहीं। मैं तो मानो अतीत और वर्तमान के झूले में हिंडोले ले रही थी। हवा में ठंड और ताजगी थी। अभी जाड़ा शुरु नहीं हुआ था या फ़िर यूँ कह ले कि यह जाडों के पहले के दिन थे। रहरह कर ठंडी हवा कंपकंपी मचा जाती। खैर मेरी झुरझुरी का कारण तो कुछ और ही था। ये जानी पहचानी सड़के, झंडेवाला चौक, गाँधी गार्डन, यहाँ की हर बात और हर चीज़ मुझे रोमांचित कर रही थी।
मानो दशकों की दूरियां मिटा कर बचपन मुझे पुकार रहा था। बेचारी रुही हैरान थी कि मम्मा क्यों रह-रहकर उसकी तरह बातें कर रही हैं।
चाट गली पहुंचकर तो ऐसा लगा जैसे मेरी यादों ने प्रत्यक्ष रुप ले लिया हो। शीला, रजनी ,दमनप्रीत, सोनू ,रोहन और मैं लगभग हर दिन स्कूल छूटने के बाद यहां आते थे। आज भी चाट का वही चटपटा स्वाद ! .खाकर मजा आ गया। मुंबई की चाट में यह स्वाद कहाँ ।
चाट गली के नजदीक ही तो था हमारा स्कूल। "मम्मी यह आपका स्कूल है? इतना छोटा !" रूही ने आश्चर्य जताते हुए कहा| मैं जवाब में मुस्कुरा दी और मन ही मन सोचने लगी कि इस छोटे स्कूल में जो सीखा वही तो जीवन का आधार बना और यहां जैसे दोस्त बने वैसे फिर कभी ना बन पाए|
यूं ही चलते चलते हम न जाने कितनी दूर आ गए थे| सड़क के दोनों ओर इतनी दुकानें आ गई है कि कहां से शुरू हुए और कहां पहुंचे कुछ पता ही नहीं चल रहा था। दूर से लाल कोठी नजर आई तो जाना कि हम 'कालीदास रोड' पहुंच गए हैं। लाल कोठी इतनी ऊंची है कि दूर से ही नजर आ जाती है। यह तब भी कालीदास रोड की शान थी और आज भी है। अंग्रेजों के जमाने की हवेली है। अंग्रेज सुपरिटेंडेंट का घर हुआ करता थी यह हवेली। सरकारी हवेली थी। दूर - दूर तक फैले बाग-बगीचों के बीच शान से खड़ी रहती थी ये हवेली।
अब उसके इर्द-गिर्द कई नए जमाने के मकान आ गए हैं । मगर सब इस रानी हवेली की दासियों से प्रतीत होते हैं|
कई बार आई थी मैं इस हवेली में। दमनप्रीत का घर जो था। घर क्या था पूरा भूल भुलैया था। आईस - पाईस खेलने की अच्छी जगह । यही बातें मैं रूही को बता रही थी कि तभी हवेली के आगे काफी भीड़ नजर आई जो कोई अच्छे संकेत नहीं दे रही थी| नजदीक आए तो जाना कि मामला तो बड़ा गंभीर है। "खून हो गया है भाई जी। बड़ी बेरहमी से मारा है बंदे ने"। मोबाइल पर वीडियो खींचते एक नौजवान ने बताया । रवि ने चौक कर मेरी ओर देखा," तुम्हारी सहेली का घर बताया था ना तुमने ?" "नहीं वह तो अब यहां नहीं रहती" मैंने जवाब दिया। " अच्छा हुआ , नहीं तो उनको मार देते। वो कहां चले गए म्ममा " मासूम रूही पूछने लगी। यह सब देख सुनकर वह घबरा गई थी मैंने मुस्कुराकर उसका हाथ सहलाते हुए कहा" पता नहीं बेटा। मैं तो कई सालों से उस के कोंटेक्ट में नहीं हूं। शीला आंटी भी नहीं जानती।" नए जमाने की पैदाइश मेरी बेटी को झट उपाय सूझ गया और बोली " तो आप उन्हें Facebook पर क्यों नहीं ढूंढतीं?"
नन्ही रुही की बात मुझे जंच गई थी। रात को नींद नहीं आ रही थी तो मैं Facebook पर दमन को ढूंढने लगी। लगभग एक दर्जन दमनप्रीत में से तीन से मुझे उम्मीद जगी और मैंने उन्हें मैसेज कर दिया। अब बस जवाब का इंतजार था। मैं सोने की कोशिश करने लगी मगर नींद तो जैसे मेरी आंखों की बैरी हो गई थी। मैं फिर अपनी यादों में डूब गई। घूम फिर कर मेरे ख्याल आज की घटना पर आ गए। आखिर लाल कोठी मेरे बचपन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी। दमन का परिवार अचानक शहर छोड़कर चला गया था और कोठी बिकाऊ हो गई थी । मेरी मां भी उसे खरीदना चाहती थी। मैं भी तो गई थी मां के साथ ,घर देखने । एजेंट ने जिस तरह से हमें कोठी दिखाई उस तरह तो मैंने कभी नहीं देखी थी। वहां एक तहखाना था और बेहद डरावनी कालकोठरी भी । शायद भारतीयों को वह अंग्रेज सुपरिटेंडेंट यहीं पर यातना देता होगा। कुछ लोगों का कहना था कि वहां एक गुप्त सुरंग भी है । किसी ने कभी देखी नहीं थी और ना ही दमन ने कभी इसका जिक्र किया था। उस कोठी को सरकारी दफ्तर बनाने की बात भी हो रही थी। फिर तो हमने ही यह शहर छोड़ दिया था । वहां दफ्तर बनाया या किसी ने खरीद लिया कौन जाने! अब कौन वहां रहता होगा? यही सब सोचते सोचते मेरी आंख लग गई।
सुबह सात बजे का अलार्म बजा। मैने धीरे से रजाई से हाथ बाहर निकालकर उसे बंद किया और बिस्तर पर ही लेटी रही। एक तो सफर की थकान,ऊपर से ठंड और रात आँख़ भी देर से लगी थी। रजाई से निकलने का मन ही नहीं कर रहा था। रवि और रूही का हाल तो फिर पूछना ही क्या! दोनों गहरी नींद में थे।
बाहर सड़क पर कुछ शोर सुनाई दिया तो मैने खिड़की खोल कर झांका। सड़क किनारे एक फटेहाल औरत बैठी थी। शायद पागल थी। कुछ लड़के उसे सता रहे थे। लड़के उसे डराते और वह उन्हें पत्थर मारने दौड़ती और फिर दुबक कर बैठ जाती| " मत मारो! जाने दो ! रोटी रावड़ी, रोटी रावड़ी । " वह बड़बड़ा रही थी। लड़कों को इसमें न जाने क्या मजा आ रहा था। मुझे बेहद गुस्सा आया और उन्हें डांट कर भगा दिया। वह सहमी नजरों से मुझे देख रही थी। मैंने उसके पास जाना चाहा मगर वह अपना झोला पकड़कर यूँ भागी मानो मैं उसका कुछ चुरा लूंगी।
उस दिन बातों ही बातों में मैंने शोभा से उस पगली का जिक्र किया। " कौन वह रोटी रावड़ी ?" शीला ने पूछा। हाँ। कौन है वो? कहां से आई है?" मैं पूछने लगी। " पता नहीं सब उसे रोटी रावड़ी ही बुलाते हैं । हर वक्त यही रट जो लगाए रहती है।" शीला ने लापरवाही से जवाब दिया मगर मैं तो जैसे उसके पीछे ही पड़ गई थी। मैंने कहा "तुम लोग उसे अस्पताल या NGO में क्यों नहीं भिजवाते?" शीला हंसी और बोली "अरे तुम भी कहा उसके लिए भावुक हो रही हो। पहले हमने भी यही सोचा था मगर पास जाओ तो मारने दौड़ती है। पता नहीं झोले में क्या छुपाए घूमती है । कुछ लोग तो कहते हैं कि वह पाकिस्तानी जासूस है।" " फिर भी इंसानियत के नाते....." मेरी बात अधूरी ही रह गई और शीला कुछ याद करके चहक उठी " अरे , मैं तो बताना भूल गई। सारे दोस्तों ने आज शाम गेट टूगेदर रखा है मधुबन होटल में। खास तेरे लिए है यह पार्टी । हम तो अक्सर मिलते रहते हैं। मगर तुम तो सालों बाद सबको देखोगी । पहचान भी नहीं पाओगी" " वे कौन सा मुझे पहचान पाएंगे " मैंने तपाक से कहा और दोनों सहेलियां खिलखिला कर हंस पड़ी।
शाम को सब परिवार हम शीला की गाड़ी से पार्टी में पहुंचे । शीला ने बिट्टू को भी साथ ले लिया था। जरूरी भी था क्योंकि बड़ों की पार्टी में बच्चे बोर हो जाते हैं और अब तो रूही और बिट्टू पक्के दोस्त बन गए हैं। पार्टी में वक्त कैसे बीता कुछ पता ही नहीं चला। हम तो जैसे वही फोर्थ ग्रेडर बन गए थे। पुरानी यादें , शरारतें , टीचर्स, सब हमारी बातों में जीवंत हो गए । 3- 4 घंटे मानो चंद पलों में बीत गए।
घर आते आते काफी रात हो गई। 10:00 बजे तक सडके यहां सुनसान हो जाती है। उस पुल पर गुजरते हुए मुझे आज भी डर लग रहा है। यह पुल भी अंग्रेजों के जमाने का है। इसे भारतीय कैदियों द्वारा बनवाया गया था। कहते हैं कि बड़ी यातनाओं के साथ उन से काम करवाया जाता था। एक एक कर सबने पुल बनाते बनाते ही दम तोड़ा था । इसी कारण इसे शापित मानते हैं। हर साल यह पुल एक बली अवश्य मांगता है। शीला ने मेरे हावभाव ताड़ते हुए पूछा "वही सोच रही हो ना?" मैंने कहा "हां तुम ही बताओ क्या हर साल एक बली वाली बात सच है?" शीला ने जवाब दिया "। हां , हर साल यहां एक न एक बड़ी दुर्घटना तो होती ही है। मगर तुम फिक्र मत करो मैं बड़ी कुशल ड्राइवर हूं।" कहते कहते उसने जोर से ब्रेक लगाया। जोर के झटके से सभी घबरा गए। बीच सड़क में कोई बैठा था। " रोटी रावड़ी" वह जोर जोर से ताली पीट कर हंसने लगी। शीला चिल्लाकर बोली "चल भाग यहां से। पगली कहीं की ।
अपने साथ हमें क्यों मारना चाहती है!" मगर वह हिली भी नहीं । तालियां पीटती वहीं बैठी रही । रवि ने कार का दरवाजा खोला ही था कि वह भाग खड़ी हुई।
अगली सुबह रवि और रूही मॉर्निंग वॉक से आए तो एक नया समाचार लाए। रुही बोली "मम्मा वह पगली है ना, उसी ने लाल कोठी में खून किया था। बिट्टू ने बताया कि वह पाकिस्तानी जासूस है ।" मैंने हैरानी से रवि की ओर देखा। रवि ने बताया " हाँ, उसे कल रात कोठी के भीतर से गिरफ्तार किया गया। हैरानी तो इस बात की है कि पूरी कोठी तो पुलिस ने सील की थी |फिर वह अंदर कैसे पहुंची? और कल रात को हमने भी तो देखा था उसे पुल पर।" मैं भी हैरान थी। " शायद वह सुरंग वाली बात सच हो और यह वही से आना-जाना करती हो, अपने खुफिया कामों के लिए। उसने खून कबूल किया?" मैंने पूछा।
"पता नहीं । मगर उसकी झोली से खून लगी दराती मिली है जिससे खून किया गया था।" रवि ने बाथरूम में जाते-जाते जवाब दिया।
मैं भी नाश्ता बनाने में लग गई। सुरंग , दुश्मन का जासूस , यह सब किताबों में पढ़ा था मगर आज हकीकत में घटते देख रही थी। थोड़ी देर में शीला आ गई और पूरा किस्सा विस्तार से बताया। " इतनी बड़ी कोठी और किसी को पता ही नहीं था। न जाने वह जगह कब से उसका अड्डा थी| और साथी भी रहे होंगे । काल कोठरी में रहती थी। वहीं से एक गुप्त सुरंग थी जिससे यह आती जाती थी बिना किसी को खबर लगे । यह सुरंग पुल के नीचे खुलती है। इस सुरंग का पता तो वहां रहने वालों को भी नहीं था तो इस पगली को कैसे पता लगा? जासूस के सिवा यह काम और कौन कर सकता है!" " हां, हो सकता है अंग्रेजों के जमाने की कोठी है । सीमा पार से आए जासूसों का यही अड्डा हो। यह लोग अक्सर पागल बनकर ही घूमते हैं । वैसे कोठी में रहता कौन है? उन्हें इस बात की भनक कैसे न हुई?" रवि ने शीला का समर्थन करते हुए कहा। मैंने कुछ याद कर के जवाब दिया "दमन का परिवार उस हादसे के बाद जैसे गायब ही हो गया था। 1984 में भड़के सांप्रदायिक दंगों की सबसे भयानक रात थी वह। मुझे आज भी याद है। पापा तो दुबई में थे। हम मां के साथ बत्तियां बुझा कर टार्च लेकर , इस कमरे से उस कमरे में छिपते फिरते थे। रह रह कर दूर से नारों की आवाज आती थी। कभी "हर हर महादेव" तो कभी "बोले सो निहाल" । दंगाइयों ने उनके घर पर भी हमला किया था। सुना है उसके पापा जी तलवार लेकर कूद पड़े थे अकेले उन सबके सामने। आस पड़ोस वाले जब तक पहुंचते दंगाई पूरी तरह तोड़फोड़ कर चुके थे। उसी रात वे लोग यह शहर छोड़कर चले गए। ठीक भी है । कितना आघात हुआ होगा मन को! दंगाई भी तो सारे जान पहचान के थे।" शीला बोली "हां फिर तो वही मसौदी लाल एंड संस" वहाँ रहने लगे। पता नहीं खरीदा या कब्जा किया।" रवि ने चौंक कर पूछा "ऐसे कैसे कोई कब्जा कर सकता है ? अंधेर नगरी है क्या?" "नहीं , हो सकता है । वह वक्त ही ऐसा था । मसौदी लाल और उसके बेटे ही तो दुकानें लूटने और घर जलाने में सबसे आगे थे। उन दंगों में ऐसे कितने घर लुटे होंगे ? न जाने अब किस हाल में होंगे वे!" मैंने जवाब दिया। शीला भी भावुक हो उठी " हां जो लुट गए उनका तो पता नहीं मगर जिन्होंने लूटा वे आज आबाद है । उसके सारे बेटे आज विदेशों में बसे हैं। मसौदी लाल तो अब रहा नहीं । उसकी पत्नी यहां अकेली रहती थी| कैसे संभालती इतनी बड़ी हवेली । और वैसे भी लूटी संपत्ति की बारीकियां वे क्या जानते? पता नहीं कितनों का गुट होगा इन जासूसों का । हो सकता है बुढ़िया ने इन जासूसों को देख लिया सुन लिया हो। तभी तो जान गवा बैठी। उस दिन मौन व्रत था उसका जब इस पगली ने उसे दराती से गोद डाला। बुढ़िया ने भी जान दे दी मगर अपना मौन व्रत नहीं तोड़ा। वरना चौकीदार तो बाहर ही खड़ा था।" मैं अब भी हैरान थी। " कौन बोल सकता है कि एक पगली के भेष में खतरनाक जासूस भी हो सकता है। मुझे तो कितना तरस आया था उस पर।" मैंने कहा। कुछ देर के लिए हम सब चुपचाप बैठे रहे। बच्चे भी सारी बातें सुन रहे थे। उनका भी अपना नजरिया होता है। बिट्टू रूही को बता रहा था " मैं बता रहा हूं तुझको यह पाकिस्तान की सहमत खान है । देखना इस पर भी पिक्चर बनेगी।"
दोपहर का खाना शीला और मैंने मिलकर ही बनाया था। खाना मेज पर लगाकर हमने सोचा सब को आवाज लगा दे। तभी रूही और बिट्टू भागते हुए अंदर आए। रूही हाँफते हुए बोली "मम्मा, बाहर बगीचे में कोई है । हम सब तुरंत बगीचे की ओर लपके और जो देखा उससे हम हक्के-बक्के रह गए। पौधों की आड़ में वह बैठी थी । खून से लथपथ । हमें देख कर हंसने लगी और फिर वही रट " रोटी रावड़ी"। हमारी तो चीख निकल पड़ी । रवि ने तुरंत पुलिस को सूचना दे दी। वह जासूस हो या कोई और , इस वक्त वह लहूलुहान थी। उसके पास न झोली थी न कोई हथियार। शीला और मैंने आंखों ही आंखों में फैसला किया। शीला तुरंत फर्स्ट एड बॉक्स ले आई। हम हैरान थे कि यह पुलिस कस्टडी से भागी कैसे? कितनी शातिर है ! मगर पगली के लिए यह कोई नई बात नहीं थी । वह तो पागलखाने से भी कई बार भाग चुकी थी। वे हर बार पकड़ कर वापस ले जाते । बेहद लगाव जो था इससे । इसे बचपन से जो पाला था। मगर जबसे लाल कोठी में आकर छुपी थी कोई पकड़ नहीं पाया था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि पुलिस उसे क्यों पकड़ ले गई? बहुत मारा था उसे। मगर वह तो भाग आई। बहुत खुश थी और मन ही मन सोच रही थी " अब फिर अपने घर में जाकर रहूंगी ।" यही सोचकर वह दर्द में भी खिलखिलाकर हंस रही थी। शीला और मैं सहमते हुए उसके नजदीक गए और उसे दवा लगाने लगे । वह भागना चाहती थी मगर खड़ी भी नहीं हो पा रही थी। तभी उसके हाथ पर वह तिरछा चोट का निशान देखकर हम चौंक उठे । ठीक ऐसा ही निशान तो दमन के हाथ पर बन गया था । अमरूद तोड़ने गए थे हम तीनों। चौकीदार की आहट पाकर हड़बड़ी में पेड़ से गिर पड़ी थी वह । 6-7 टांके भी लगे थे। उन टांको का निशान रह गया था । धड़कते दिल के साथ हमने उसे गौर से देखा तो अपनी बचपन की दोस्त को पहचान लिया।
अब उसे उसका हक वापस दिलाना है। वो सब जो उससे उस मनहूस रात ने छीन लिया था। शायद यही था वह मकसद जिसे पूरा कराने मेरी किस्मत मुझे यहां खींच लाई थी।
डॉ. अश्विनी ,Kannadiparamba,Kannur,Kerala
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