*आशीष दशोत्तर
1.
चोंट इक ज़ोरदार बाक़ी है
झूठ पे सच का वार बाक़ी है।
हमसे कहती हैं घर की दीवारें
नींव में इक दरार बाक़ी है।
मेरे घर की खिज़ा पे मत जाना
मेरे दिल में बहार बाक़ी है।
मिट गए हैं पुजारी नफ़रत के
प्यार की रहगुज़ार बाक़ी है।
मेरे दिल में, ज़ुबाँ पे, सांसों में
मेरा परवरदिगार बाक़ी है।
आप शामिल हैं खुशनसीबों में
आपका ग़र वक़ार बाक़ी है।
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2.
महल में रह के उन्हें फिक़्र है ज़माने का
बुरा है हाल इधर अपने आशियाने का।
ग़मों के दौर में घुट-घुट के लोग जीते हैं
कहाँ से हौंसला ये लाएँ मुस्कुराने का।
मिली तो हैं तुम्हें दुनिया की दौलतें लेकिन
मज़ा ही और है मेहनत से कुछ कमाने का।
जहाँ पे आपको अहसास हो मुहब्बत का
वही मक़ाम है अपने ग़रीबखाने का।
पड़ी है आबरू ख़तरे में अपने रिश्तों की
यही तो वक्त है दिल को क़रीब लाने का।
हमारे दौर का पंछी भी खुद समझता है
'ज़माना अब नहीं तिनकों से घर बनाने का।'
हवा भी देखिए आशीष तेज़ चलने लगी
हमारा वक्त जो आया दिये जलाने का।
*आशीष दशोत्तर , रतलाम (म.प्र.)
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