*डॉ.अल्पना शर्मा
दिन ऐसे गुजरता है....
जैसे लम्हा-लम्हा सर से बोझ उतार रहा हो
ज़िन्दगी गुजर नहीं कट रही है
प्रार्थना ऐसे जैसे
आर्त्र पुकार रहा है कोई
किसी के इन्तजार में......
आहटों पर चौंकता है जो
असहाय एकाकी
अपने को सुदृढ़ दिखाने की कोशिश में
भीतर से टूटता हुआ.......
कोई गरीब या दीन नहीं
पहचान ऐ मनुज
तेरा अपना ही है......
जो तेरा रक्षक था
पालक - पोषक था
संतानों के लिए इक उम्र गवां दी
तेरा अपना ही पिता.....
दूर शहर में तेरी बीमारी की
भनक लग जाती थी जिसे
और कौन......
तेरी ही मां है
जिसके कारण अस्तित्व तेरा पृथ्वी पर
ये हाड़-चर्ममय ढांचा......
जिस पर इतरा रहा तू
उसकी ही है देन
पहचान मनुज.....
तभी तो तेरा अपना है
और नहीं तो मनुजता के सम्बन्ध से
या कि बिना कारण ओ तर्क
असीम सुख दे दे
शांत कर दे अंतर के सब झंझावात
क्योंकि हे मनुज...
वो ही तेरा अपना है
बस वो ही तेरा अपना है।
*डॉ.अल्पना शर्मा
सरदारशहर, चूरू, राजस्थान
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