*कीर्ति*
जीत गयी मैं हारी माँ।
जग में सबसे प्यारी माँ।
छाया जैसी शीलत रखती
पल पल मुझपे वारी माँ।
एक नदी के जैसी लगती
धारा सी बलिहारी माँ
फूलों का उपवन हो जैसे
घर में महके क्यारी माँ
ज्ञान उसी से पाया मैंने
दयाशील है न्यारी माँ
सिर्फ दुआयें ओढ़ रखीं हैं
अभी सफर है जारी माँ
कीर्ति, शोधछात्रा संस्कृत
दयालबाग डीम्ड विश्वविद्यालय, आगरा
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