*माया मालवेंद्र बदेका*
उन गलियों में घूम आई फिर आज।
बचपन तूने जहां मुझे छोड़ा था।
क्या क्या बतलाऊं ,क्या क्या सुनेगा।
सुन माता की गोदी की लोरी।
सुन ले पिता की करुण पुकार।
सूने सूने आंगन देखे,सूने दिखे त्यौहार।
आंगन में तुलसी की क्यारी,मंजरी सूख गई।
जल चढ़ाने वाली माता,किस लोक मे चली गई।
एक कुर्सी पर बैठ बाबा पाठ पढ़ा करते थे।
हनुमत रक्षा करो, सबकी यह सदा कहते थे।
पालन पोषण करते करते थक कर चूर हो गये।
नहीं कहा कुछ भी, बस गहन निद्रा में सो गये।
घूमते घूमते गली में पुतला एक दिखा था।
रावण जला करता है यहां ऐसा कुछ लगा।
अंहकार को मारो क्यो आकृति बनाते हो।
बुरा बुरा ही कहते हो कागज़ को जलाते हो।
कागज जलकर राख हुआ और हवा में उड़ गया।
बाउजी की बात समझी,दम्भ तो रह ही गया।
अगर खत्म हो जाता अभिमान तो काहे ,अब तक रावण जलता।
राम होते हर घर घर में बेटियों पर अत्याचार न रहता।
गली बोली मुझसे चलते चलते,बिटियां रानी आया करो।
तुम जलता रावण नहीं देखती, मुझसे ही मिल जाया करो।
देश भर गया रावण से, अब प्रतिक की जरूरत नहीं।
राम तो क्या अब मिलती रामजी की गली भी नहीं।
मां बाबा आंउगी में फिर भी आउंगी।
पूरी दुनिया से क्या करना आपका वचन निभाऊंगी।
दम्भ , अहंकार, अभिमान सबको कहना है एक बार।
सुनलो तुम सबसे नाता मेने तोड़ा।
उन गलियों में घूम आई फिर आज।
बचपन तूने जहां मुझे छोड़ा था।
*माया मालवेंद्र बदेका,74 अलखधाम नगर,उज्जैन (म.प्र.)
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