*सविता दास सवि*
ये जो शाम का
लाल रंग
है यहाँ
भोर कहीं और हो रही
बता यही रहा
क्यों निराश हैं मन
सांझ के आने से
पंछी घर लौट रहे
दिन भर की
उड़ान, थकान से
जो डूब रहा है
वो उग रहा कहीं
तू क्यों उदास है मन
सुबह तेरे
जीवन में भी होगी
ना पीछे मुड़ के देख
राहें खो जाएँगी
तेरे बुलन्द इरादों से
मन्ज़िल खुद सामने
आ जायेगी
देख ना यहाँ
सब थोड़े से उदास है
क्या जाने तू ही
किसी के जीने की
आस है
जो पास है उसे
अपना लेना
जो जाना चाहे उसे
मुक्त कर देना
अपनो के लिए ही तो
ये शाम आती है
सब मिलजुल कर हंस ले
इसीलिए तो चाँदनी
झिलमिलाती है
इस आसमानी रंग से
थोड़ी सी लाली
चुरा लेना
मेरे मन
अपनेपन की नीली चादर में
इस धरा को एक कुटुम्ब
बना लेना मेरे मन।
*सविता दास सवि,तेज़पुर,असम
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