*माया मालवेंद्र बदेका*
पौराणिक कथाओं के आधार पर"संजा पर्व" का महत्व भगवान शिव और माता पार्वती पर आधारित है।ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव को वर रुप में पाने के लिए माता पार्वती ने इस"संजा पर्व" को प्रतिष्ठित किया था।कहीं पर ऐसी मान्यता है कि सांगानेर की राजकन्या संजा की स्मृति में यह पर्व मनाया जाता रहा है। कुंवारी कन्याओं को सुयोग्य वर मिले इसलिए भी यह व्रत किया जाता है।संजा पर्व विशेषतः कुंवारी कन्याओं से सम्बन्धित है।राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र में यह पर्व अन्य नामों से प्रचलित है। निमाड़ और मालवा में खासकर मनाया जाता है,और मालवा क्षेत्र की तो खास पहचान है,संजा पर्व।
सोलह श्राद्ध में मनाये जाना वाला पर्व भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से शुरू होता है। पूर्णिमा को संजा बई अपने मायके में आती हैं। किशोरी बालायें सोलह दिन इस पर्व को बड़े चाव से मनाती है।प्रतिदिन संध्या की वेला में घर के बाहर दीवार पर गोबर से लीपकर, फिर गोबर से ही आकृति बनाई जाती है। हर दिन अलग अलग आकृति बनाई जाती है। नई आकृति बनाने से पहले पिछले दिन की आकृति को धीरे से खुरचकर निकाल लिया जाता है और उस जगह को फिर से गोबर से लीप कर नई आकृति बनाई जाती है।
पूनम को पाट,पांच पांचा।एकम,प्रतिपदा,चंदा सूरज।दूज (बीज)का बिजौरा।तीज , तृतीया,पंखा चौथ, चतुर्थी की चौपड़ पंखा, जाड़ी जसोदा पतली पेमा, गाड़ी,डोकरा डोकरी, स्वस्तिक,भाई भावज,हार फूल (गेणा) गहना,आठ पंखुड़ियों का फूल, छाबड़ी की आकृति बनाई जाती है जो अलग अलग दिन बनती है। एकादशी से किला कोट(कलाकोट)बनाया जाता है।तेरस, त्रयोदशी को बंदनवार,चौदस चतुर्दशी को डोली और अमावस्या को पूरा किलाकोट बनाया जाता है। सूर्यास्त से पहले संजा बना ली जाती है।
एक अनुमान था पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का कि कही सांझी या संजा का सम्बंध ब्रम्हा की कन्या संध्या से तो नहीं और इसलिए यह संध्या की वेला में मनाई जाती है। संजा की सोलह पारम्परिक आकृति गोबर से बनती है।उन आकृतियों को फूल पत्ती से सजाया जाता है। गुलाब,कनेर और अन्य फूल तो होते ही हैं,पर विशेषतः गुलदाउदी के फूलो से संजा को सजाया जाता है। नैतिकता और पर्यावरण का संदेश देता संजा पर्व महत्वपूर्ण प्रभाव देता है।
फिर सभी सहेलिया एकत्रित होकर आरती और प्रसाद की तैयारी करती है।आरती का समवेद स्वर बहुत कर्णप्रिय होता है।सभी सखियां मिलकर आरती करती हैं__
पेली आरती रय रमझोर रय रमझोर।
दूसरी आरती रय रमझोर,रय रमझोर।
फिर संजा के गीत सभी सखियां मिलकर गाती है
(1)
छोटी सी गाड़ी रड़कती जाय,रडकती जाय।
नानी सी गाड़ी रड़कती जाय,रड़कती जाय।
जिमे बैठया संजा बई,संजा बई।
घाघरो घमकाता जाय,चूडलो चमकाता जाय, चूंदड़ी चलकाता जाय,बईजी की नथनी झोला खाय।
देखो ब पियर जाये।
(2)
काजल टिकी लो भई काजल टिकी लो
काजल टिकी लय ने म्हारी संजा बई ने दो।
(3)
संजा तो मांगें हरयो हरयो गोबर,कां से लउ बई हरियो हरियो गोबर
संजा का वीरा जी माली घरे जाये के ले बई संजा हरयो हरयो गोबर।
(4)
संजा तू थारा घरे जा
के थारी बई मारेगा के कूटेगा के
डेली मे डचोकेगा के
चांद गयो गुजरात के
हिरणी का बड़ा बड़ा दांत के
छोरा छोरी डरपेगा।
(5)
संजा तू बड़ा बाप की बेटी तू पेरे माणक मोती तू खाये खाजा रोटी।
(6)
मगरे बेठी चरकली उड़ावो कां नी दादाजी के संजा बई चाली सासरे मनाओ कां नी दादाजी।
(7)
खुड़ खुड़ रे म्हारा खोड़िया बामण
(8)
संजा बई का लाड़ा जी लुगड़ो लाया जाड़ा जी,असो कय लाया लट्ठा को लाता गोट किनारी को।
इसी तरह सोलह दिन अलग अलग गीत सभी सखियां मिलकर गाती है।परसाद,प्रसाद में भी छाने छुपके मतलब छुपाया जाता है कि आज कय परसाद। मतलब आज क्या प्रसाद है। चना, चिरोंजी, मूंगफली के दाने अधिकतर पहले वहीं प्रसाद होता था और अब भी ग्रामीण अंचलों में वही परिपाटी है। बचपन की अठखेलियां,सखी सहेलियों के साथ बिताए दिन मायके की मधुर स्मृतियां इस संजा पर्व में जींवत हो उठती है। बालायें,कन्यायें, विवाहित महिलाओं को बहुत सुखद अनुभूति देता पर्व।धर्म से जुड़ी लोककलाओं में गहन संदेश छुपे होते हैं।संजा पर्व भी यहीं संदेश देता है कि बेटियां कभी पराई नहीं होती। बेटियां घर में बहार होती है। संजा बई का मायके आना,सखी सहेलियों का मनाना,भाई भावज का दुलार विशुद्ध प्रेम का परिचायक है नवविवाहिता अपने मायके में आकर संजा उद्यापन करती है। इस पर्व में पूरा संदेश बेटियों के मान सम्मान,सुख सौभाग्य का कारक है।बचपन की यादें बातें और संजा पर्व को जीवंत रखना और मालवा की संस्कृति को बचाये रखने का एक लक्ष्य है, ध्येय है। पुराने गीतों के साथ संजा बई के नये गीत भी रचित किये है।
1
सजया धजया बैठया संजा बई
अय सयेली चार जी।
मीठा मीठा कौल देवे।
करे बई की मनवार जी।
जिमो जिमो म्हारी संजा बई।
थाने करा जुहार जी।
2
संजा बई मान लो नी वात
शीरी कांता मधु मनावे
बाई भरी मेली गई दूनो
नानी वाटंजे परसाद ।
गाड़ी अटकी पईड़ा अटकया।
वीरा जी दूध भरी परात।
3
केली को झाड़ उगयो संजा बई
केली को झाड़ उगयो जी।
पाना फूला सजो संजा बई
पाना फूला सजो ओ बई।
चोपड़ मांडी रमो संजा बई
चोपड़ मांडी रमजो बई।
हम हमारी संस्कृति और सभ्यता को अक्षुण्ण बनाए रखें।
*माया मालवेंद्र बदेका,74_अलखधाम नगर,उज्जैन (मध्यप्रदेश)
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