● मृत्य शाश्वत सत्य है ●
वेद, उपनिषद,
दुनिया के तमाम धर्म ग्रन्थ
कहते हैं , मृत्यु
शाश्वत सत्य है
यह तथ्य निर्विवाद है
जो भगवान की तरह
पूजे गए
जिन्होंने विज्ञान के सहारे
दुनिया को जीत लिया
दुनिया पर किया राज
उस सिकन्दर ने भी माना
जीत लो चाहे सब कुछ
नहीं जीत पाओगे
मृत्यु को
फिर भी
यह तेरा, यह मेरा
के फेर में उलझा
इंसान
करता है लड़ाई
झगड़े, फसाद
इसी से होता है
मानव सभ्यता का
विनाश
सभ्यता, संस्कृति का ह्वास
ओ मनुज़!
जानते हो कि एक दिन
मृत्य तुम्हे भी लील लेगी
तुम
अपने प्राप्त अधिकारों
के दम्भ में
क्यों करते हो सभ्यता,
संस्कृति और मानवता का
संहार
तुम्हारी ताकत को
वसुधैव कुटुम्बकम
के भाव से सजाओ
देश, दुनिया को
प्यार का संदेश देकर
सहअस्तित्व की भावना से
इस तरह सींचो कि
पूरी दुनिया में
सत्यम, शिवम, सुंदरम
का प्रसार हो
हर प्राणी के मन में रहे
मृत्य शाश्वत सत्य है
इसे कोई नही जीत सकता
जीती हुई दुनिया भी
किसी के साथ नहीं मरती!
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● लालिमा सूर्योदय की ●
हमने देखा है
जीवन को बड़ी विवशता से
जीते हुये लोंगों को
जिनकी सिराओं में
अब दौड़ने लगा
रक्त की जगह लावा
कभी डर
कभी संकोच
कभी मजबूरी
शायद कोई हिस्सा हो
कुछ न कह पाने की
विवशता का
जिन्दगी में रह गया
बहुत कुछ अनकहा
उदासियाँ खा गई
सपने
जिनके पास
सिवा मृत्यु के कुछ नहीं
वे एक दिन में कई बार
मरते हैं
और जीते हैं
सर्द रातों में
जलते हुए
ख्वाबों की तपिश
अक्सर जीने नहीं देती
उजाले की लकीर
खींचने के प्रयत्न में
भूख से लड़खड़ाते हुए
गुमनामी के अंधरे
में खो जाते हैं
और अजनबियों के बीच
रहने को
अभिशप्त हो जाते हैं
अपने आप से झूझना
अपने ही विरुद्ध हो जाना
कितना मुश्किल है
विश्वास कभी चमत्कारों की
इच्छा नहीं रखता
बनना ही होगा अब
तेजस्वी और ओजस्वी
तब फैलेगी
लालिमा सूर्योदय की
जिसके प्रकाश में
बदल जाएगी
परिभाषा जीवन की।
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● मेरे भीतर बहती है नदी ●
मेरे भीतर
बहती है एक नदी
जो बहती रहती है अविरल,
उदास, लम्बी, गहरी
सम्वेदनाओं की घाटियों में
नित नये अवरोध को सहती
उल्लास व उमंग के साथ
मन की सुनी देहरी पर
मिलों फैले सन्नाटे में
मनुष्यों द्वारा फैलाई
गंदगी के साथ
जो जहर बन फैल रही है
नदी की सिराओं में
धर्म-ध्वजाओं
सांस्कृतिक परम्पराओं
और झूठे आडम्बरों वाले
वेदना के घने जंगल
अपने मे समाये
सदियों से बह रही नदी...
पर अब वो लय नहीं
वैसी पवित्र धाराएं नहीं
सभ्यता के प्रहार से
सहमी हुई है नदी
हांपती हुई सांसों से
अपनी दुर्दशा पर
आंसूं बहाती कह रही है-
'मेरे अस्तित्व के खतरों को देख
उम्मीद की सतह पर
मेरी रक्षा कर
ओ मनुज़
मैं जिंदगी हूँ
मानव सभ्यता की'।
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● जीवन और नदी ●
अपने बचपन से
आज तक
नदी के के संपूर्ण अस्तित्व को
संवरते और बिखरते
देखा है हमने
अपने स्त्रोत- मुख से
बहती हुई नदी के किनारों पर
जीवन का परिचय
और सभ्यता का संगीत है
अविरल बहती धाराओं का
स्पर्श
कितना मृदुल है
कितना मधुर स्वर हैं
निश्चल मौन का
कितना मोहक रूप है
नदी का
इसके तटबंधों पर
अब कुंठा का अभिनय है
समुद्र में मिलजाने की
परायण पीड़ा है
मिट जाने का गम है
और…..और
मैं सोचता हूँ
कितना साम्य है
जीवन और नदी में!
*राजकुमार जैन राजन,चित्रा प्रकाशन,आकोला - 312205, ( चित्तौड़गढ़ ) , राजस्थान,मो 9828219919
ईमेल - rajkumarjainrajan@gmail.com
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