-राजेश "राज"
लो उड़ी जा रही नील गगन में
मन की मेरे पतंग
कुछ आशाऎ बांध भावना की
ड़ोरी के संग
चली मन की मेरे पतंग....
रिश्तो के नाजुक बंधन हैं
पेंच कहीं न लड़ जाये
हवा स्वार्थ की चल रही अंधी
हद से कहीं न बड़ जाये
रंग बिरंगी चंचल चाहत
हो जाये नहीं बदरंग
चली मन की मेरे पतंग.....
आशाये आकाश छू रही
सम्हल सम्हल कर चलना हैं
आशा में सिमटा हैं जीवन
आशा में ही पलना हैं
जीवन आशा और निराशा
करता फीर क्यू द्वंद
चली मन की मेरे पतंग.....
लहराती बलखाती गीरती
उलझ उलझ रह जाती हैं
लक्ष्य को अपने ढ़ील न देना
कटकर यह कह जाती हैं
लक्ष्य को साधे जीवन सधता
बस यही सतसंग
चली मन की मेरे पतंग.....
-राजेश " राज़ ",उज्जैन
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